Friday, September 28, 2012

अगर वो याद आ जाएं न अश्कों को बहाना


मेहदी हसन साहब की आवाज़ में एक और फ़िल्मी गीत -



तमन्नाओं की नगरी में कोई फ़रियाद मत करना
भुला देना सभी वादे किसे को प्यार मत करना ...

Wednesday, September 26, 2012

कह दो कि ये तो जाने-पहचाने आदमी हैं



मल्लिका पुखराज की क़ाबिल पुत्री ताहिरा सैय्यद सुना रही हैं दाग़ देहलवी की एक ग़ज़ल-





ज़ाहिद न कह बुरी के ये मस्ताने आदमी हैं
तुझको लिपट पड़ेंगे दीवाने आदमी हैं.

ग़ैरों की दोस्ती पर क्यूँ ऐतबार कीजे
ये दुश्मनी करेंगे बेगाने आदमी हैं.

तुम ने हमारे दिल में घर कर लिया तो क्या है
आबाद करते. आख़िर वीराने आदमी हैं

क्या चोर हैं जो हम को दरबाँ तुम्हारा टोके
कह दो कि ये तो जाने-पहचाने आदमी हैं

Tuesday, September 25, 2012

नींद क्यों रात भर नहीं आती


आबिदा परवीन की आवाज़ में मिर्ज़ा ग़ालिब की एक ग़ज़ल –



कोई उम्मीद बर नहीं आती
कोई सूरत नज़र नहीं आती

मौत का एक दिन मु'अय्यन है
नींद क्यों रात भर नहीं आती

आगे आती थी हाल-ए-दिल पे हँसी
अब किसी बात पर नहीं आती

जानता हूँ सवाब-ए-ता'अत-ओ-ज़हद
पर तबीयत इधर नहीं आती

है कुछ ऐसी ही बात जो चुप हूँ
वर्ना क्या बात कर नहीं आती

क्यों न चीख़ूँ कि याद करते हैं
मेरी आवाज़ गर नहीं आती

दाग़-ए-दिल नज़र नहीं आता
बू-ए-चारागर नहीं आती

हम वहाँ हैं जहाँ से हम को भी
कुछ हमारी ख़बर नहीं आती

मरते हैं आरज़ू में मरने की
मौत आती है पर नहीं आती

काबा किस मुँह से जाओगे 'ग़ालिब'
शर्म तुमको मगर नहीं आती

Monday, September 24, 2012

प्याला गर नहीं देता न दे शराब तो दे


उस्ताद बरकत अली खां की गई मिर्ज़ा ग़ालिब की एक ग़ज़ल पेश है –

ठुमरी, गीत और ग़ज़ल के क्षेत्र में उस्ताद एक प्रतिष्ठित नाम थे. इसके अलावा पूरबी और पंजाबी रंग की गायकी पर उनकी पकड़ लाजवाब थी. उस्ताद बड़े गुलाम अली खां के छोटे भाई थे उस्ताद बरकत अली खां. उन्होंने पहले अपने वालिद उस्ताद अली बख्श खां से और बाद में अपने बड़े भाई से संगीत सीखा. पटियाला घराने के लिए उनका असमय निधन एक बड़ा नुकसान था जब वे कुल सत्तावन की आयु में अल्लाह के प्यारे हुए. यहाँ इस बात का ज़िक्र अप्रासंगिक नहीं होगा की आज के मशहूर ग़ज़ल गायक ग़ुलाम अली को उन्होंने ही प्रशिक्षित किया था.


 

वो आके ख्व़ाब में तस्कीन-ए-इज़्तिराब तो दे
दे के मुझे तपिश-ए-दिल मजाल-ए-ख्व़ाब दे

करे है क़त्ल लगावट में तेरा रो देना
तेरी तरह कोई तेग-ए-निगाह को आब तो दे

दिखा के जुम्बिश-ए-लब ही तमाम कर हमको
न दे जो बोसा तो मुंह से कहीं जवाब दो दे

पिला दे ओक से साकी जो हमसे नफरत है
प्याला गर नहीं देता न दे शराब तो दे

‘असद’ खुशी से मेरे हाथ पाँव फूल गए
कहा जो उसने ज़रा मेरे पाँव दाब तो दे



Thursday, September 20, 2012

प्यास बुझे और प्यास न जाए



नौशाद द्वारा प्रस्तुत गणेश बिहारी ‘तर्ज़’ की ग़ज़लों के अलबम ‘तर्ज़’ की आखिरी प्रस्तुति है यह. ललित सेन के संगीत निर्देशन में शोभा गुर्टू –





रह गए आंसू, नैन बिछाए
घन आए घनस्याम न आए

दिल तो जैसे तैसे संभला
रूह की पीड़ा कौन मिटाए

मोर मयूरी नाच चुके सब
रो रो सावन बीता जाए

पीली पड़ गई हरियाली भी
धानी आँचल सरका जाए

देख के उनको हाल अजब है
प्यास बुझे और प्यास न जाए

हुस्न का साक़ी प्यार के सागर
‘तर्ज़’ पिए और गिर गिर जाए

Wednesday, September 19, 2012

मेरा ग़म हदों से गुज़र गया मुझे अब खुशी की दुआ न दे


'तर्ज़' से अगली पेशकश. गणेश बिहारी 'तर्ज़' की ग़ज़ल को स्वर दे रही हैं शोभा गुर्टू -





मुझे दे के मय मेरे साक़िया मेरी तिश्नगी को हवा न दे
मेरी प्यास पर भी तो कर नज़र मुझे मैकशी की सज़ा न दे

मेरा साथ अय मेरे हमसफ़र नहीं चाहता है तो जाम दे
मगर इस तरह सर-ए-रहगुज़र मुझे हर कदम पे सदा न दे

मेरा ग़म न कर मेरे चारागर तेरी चाराजोई बजा मगर
मेरा दर्द है मेरी ज़िन्दगी मुझे दर्द-ए-दिल की दवा न दे

मैं वहां हूँ अब मेरे नासेहा की जहाँ खुशी का गुज़र नहीं
मेरा ग़म हदों से गुज़र गया मुझे अब खुशी की दुआ न दे

वो गिराएं शौक़ से बिजलियाँ ये सितम करम है सितम नहीं
के वो 'तर्ज़' बर्क-ए-ज़फ़ा नहीं जो चमक ने नूर-ए-वफ़ा न दे

Tuesday, September 18, 2012

राह कठिन है पी के नगर की, आग पे चल कर जाना है


‘तर्ज़’ की चौथी ग़ज़ल. स्वर मेहदी हसन साहब का -



इश्क़ की मार बड़ी दर्दीली, इश्क़ में जी न फंसाना जी
सब कुछ करना इश्क़ न करना, इश्क़ से जान बचाना जी

वक़्त न देखे, उम्र न देखे, जब चाहे मजबूर करे
मौत और इश्क़ के आगे लोगो, कोई चले न बहाना जी

इश्क़ की ठोकर, मौत की हिचकी, दोनों का है एक असर
एक करे घर घर रुसवाई, एक करे अफ़साना जी

इश्क़ की नेमत फिर भी यारो, हर नेमत पर भारी है
इश्क़ की टीसें देन ख़ुदा की, इश्क़ से क्या घबराना जी

इश्क़ की नज़रों में सब यकसां, काबा क्या बुतख़ाना क्या
इश्क़ में दुनिया उक्बां क्या है, क्या अपना बेगाना जी

राह कठिन है पी के नगर की, आग पे चल कर जाना है
इश्क़ है सीढ़ी पी के मिलन की, जो चाहे तो निभाना जी

'तर्ज़' बहुत दिन झेल चुके तुम, दुनिया की जंजीरों को
तोड़ के पिंजरा अब तो तुम्हें है देस पिया के जाना जी

Monday, September 17, 2012

चार तिनके ही रख पाए थे आँधियों को ख़बर हो गई


‘तर्ज़’ की तीसरी ग़ज़ल. स्वर शोभा गुर्टू का. प्रस्तुति नौशाद की और संगीत ललित सेन का -




बेनियाज़-ए-सहर हो गई
शाम-ए-ग़म मौतबर हो गई

एक नज़र क्या इधर हो गई
अजनबी हर नज़र हो गई

ज़िन्दगी क्या है और मौत क्या
शब हुई और सहर हो गई

उनकी आँखों में अश्क़ आ गए
दास्ताँ मुख़्तसर हो गई

चार तिनके ही रख पाए थे
आँधियों को ख़बर हो गई

छिड़ गई किस के दामन की बात
ख़ुद-ब-ख़ुद आँख तर हो गई

उनकी महफ़िल से उठ कर चले
रोशनी हमसफ़र हो गई

‘तर्ज़’ जब से छुटा कारवाँ
जीस्त गर्द-ए-सफ़र हो गई

Sunday, September 16, 2012

दाग़ के शेर जवानी में भले लगते हैं, मीर की कोई ग़ज़ल गाओ तो कुछ चैन पड़े


'अल्बम' तर्ज़ से दूसरी पेशकश शोभा गुर्टू की आवाज़ में -



एक ज़रा दिल के करीब आओ तो कुछ चैन पड़े
जाम को जाम से टकराओ तो कुछ चैन पड़े

दिल उलझता है नग़मा-ओ-मय रंगीं सुनकर
गीत एक दर्द भरा गाओ तो कुछ चैन पड़े

बैठे बैठे तो हर मौज से दिल दहलेगा
बढ़के तूफ़ान से टकराओ तो कुछ चैन पड़े

दाग़ के शेर जवानी में भले लगते हैं
मीर की कोई ग़ज़ल गाओ तो कुछ चैन पड़े

याद-ए-अय्याम-गुज़िश्ता से इजाज़त लेकर
'तर्ज़' कुछ देर को सो जाओ तो कुछ चैन पड़े

Saturday, September 15, 2012

उतरा जो नूर, नूर-ए-ख़ुदा बन गई ग़ज़ल


उस्ताद मेहदी हसन ने १९९३ में ख्यात शास्त्रीय गायिका शोभा गुर्टू के साथ मिलकर एक शानदार अलबम जारी किया था – तर्ज़. गणेश बिहारी ‘तर्ज़’ की कुल छः गजलों को इस अलबम में जगह मिली थी. आज से अगले छः दिनों तक सुखनसाज़ के चाहनेवालों के लिए यह पूरा अल्बम पेश किया जाएगा.

पहली प्रस्तुति –



दुनिया बनी तो हम्द-ओ-सना बन गई ग़ज़ल
उतरा जो नूर, नूर-ए-ख़ुदा बन गई ग़ज़ल

गूँजा जो नाद ब्रह्म, बनी रक़्स-ए-महर-ओ-माह
ज़र्रे जो थरथराए, सदा बन गई ग़ज़ल

चमकी कहीं जो बर्क़ तो ऐहसास बन गई
छाई कहीं घटा तो अदा बन गई ग़ज़ल

आँधी चली तो कहर के साँचे में ढल गई
बाद-ए-सबा चली तो नशा बन गई ग़ज़ल

हैवां बने तो भूख बनी, बेबसी बनी
इनसान बने तो जज़्ब-ए-वफ़ा बन गई ग़ज़ल

उठा जो दर्द-ए-इश्क़ तो अश्क़ों में ढल गई
बेचैनियाँ बढ़ीं तो दुआ बन गई ग़ज़ल

ज़ाहिद ने पी तो जाम-ए-पना बन के रह गई
रिंदों ने पी तो जाम-ए-बक़ा बन गई ग़ज़ल

अर्ज़-ए-दकन में जान तो देहली में दिल बनी
और शहर लख़नऊ में हिना बन गई ग़ज़ल

दोहे, रुबाई, नज़्में सब ‘तर्ज़’ थे मगर
असनाफ़-ए-शायरी का ख़ुदा बन गई ग़ज़ल 

Friday, September 14, 2012

दीवार-ओ-दर पे नक्श बनाने से क्या मिला


उस्ताद खानसाहेब मेहदी हसन की एक और यादगार ग़ज़ल पेश है -




दीवार-ओ-दर पे नक्श बनाने से क्या मिला 
लिख लिख के मेरा नाम मिटाने से क्या मिला 

हाँ चौदहवीं का चाँद भी शरमा गया हुज़ूर 
एक दिलजले के दिल को जलाने से क्या मिला 

आवारगी सही है मगर ये बताइये 
उसकी गली में आपको जाने से क्या मिला 

चारागरी से जिस को अदावत सी है उसे 
दिल के हज़ार ज़ख्म दिखाने से क्या मिला 

जो हो सके तो बताइये अपनी मसर्रतें 
ये सोचना ग़लत के ज़माने से क्या मिला.

Thursday, September 13, 2012

निगाह-ए-करम वो दुबारा करेंगे, इसी आरज़ू में गुज़ारा करेंगे


मेहदी हसन साहब की गाई एक और कम सुनी गयी ग़ज़ल –


तुम्हें दिल ही दिल में पुकारा करेंगे
वो रुसवा हों कब ये गवारा करेंगे

ये दिल चीज़ क्या है ये जाँ भी लुटा दें
ज़रा सा अगर वो इशारा करेंगे

निगाह-ए-करम वो दुबारा करेंगे
इसी आरज़ू में गुज़ारा करेंगे

बना के हमें इक जहाँ का तमाशा
बड़ी दूर से वो नज़ारा करेंगे

Wednesday, September 12, 2012

किस पर करें वफ़ा का गुमां आपके बग़ैर


उस्ताद गा रहे हैं क़तील शिफ़ाई की ग़ज़ल  




खाली पड़ा था दिल का मकान आप के बग़ैर 
बेरंग सा था सारा जहां आपके बग़ैर 

फूलों में चांदनी में धनक में घटाओं में 
पहले ये दिलकशी थी कहाँ आपके बग़ैर 

साहिल को इंतज़ार है मुद्दत से आपका 
रुक सी गयी है मौज-ए-रवां आपके बग़ैर 

हर सिम्त बेरुख़ी की है चादर तनी हुई 
किस पर करें वफ़ा का गुमां आपके बग़ैर 

ख़ामोशियों को जैसे ज़ुबां मिल गयी क़तील 
महफ़िल में ज़िन्दगी थी कहाँ आपके बग़ैर 

Tuesday, September 11, 2012

रात गयी तो रात ना होगी

खालिद महमूद ‘आरिफ़’ की ग़ज़ल उस्ताद मेहदी हसन की आवाज़ में -



बिन बारिश बरसात ना होगी
रात गयी तो रात ना होगी

राज़-ए-मोहब्बत तुम मत पूछो
मुझसे तो ये बात ना होगी

किस से दिल बहलाओगे तुम
जिस दम मेरी ज़ात ना होगी

यूं देखेंगे ‘आरिफ़’ उसको
बीच में अपनी ज़ात ना होगी




Monday, September 10, 2012

सोने वालों की तरह जागने वालों जैसी

एक बार फिर उस्ताद मेहदी हसन. ग़ज़ल अहमद फ़राज़ की - 







 ज़ुल्फ़ रातों सी है, रंगत है उजालों जैसी
पर तबीयत है वो ही भूलने वालों जैसी

ढूँढता फिरता हूँ लोगों में शबाहत उसकी
के वो ख्वाबों में लगती है ख़यालों जैसी

उसकी बातें भी दिल-आवेज़ हैं सूरत की तरह
मेरी सोचें भी परीशां मेरे बालों की तरह

उसकी आखों को कभी गौर से देखा है 'फ़राज़'
सोने वालों की तरह जागने वालों जैसी

Sunday, September 9, 2012

तू आ जा रसिया नदिया किनारे मोरा गाँव


पिछला लम्बा अरसा अनेक लगातार लगातार मरहूम उस्ताद मेहदी हसन खान साहब को सुनने में बीता. आज आपको सुनवाता हूँ उनकी एक दुर्लभ कम्पोज़ीशन - तू आ जा रसिया नदिया किनारे मोरा गाँव

 

Saturday, September 8, 2012

हम निगाहों से तेरी आरती उतारेंगे - उस्ताद मेहदी हसन



यह विख्यात गीत कई गायकों ने गाया है. कोई चार साल पहले मैंने यही गीत आसिफ़ अली की आवाज़ में कबाड़ख़ाने में लगाया था. आज वही उस्ताद मेहदी हसन खां साहब की आवाज़ में -





अब के साल पूनम में, जब तू आएगी मिलने
हम ने सोच रखा है रात यूं गुज़ारेंगे
धड़कनें बिछा देंगे शोख़ तेरे क़दमों पे
हम निगाहों से तेरी आरती उतारेंगे

तू कि आज क़ातिल है, फिर भी राहत-ए-दिल है
ज़हर की नदी है तू, फिर भी क़ीमती है तू
पस्त हौसले वाले तेरा साथ क्या देंगे
ज़िंदगी इधर आ जा, हम तुझे गुज़ारेंगे

आहनी कलेजे को, ज़ख़्म की ज़रूरत है
उंगलियों से जो टपके, उस लहू की हाज़त है
आप ज़ुल्फ़-ए-जानां के, ख़म संवारिये साहब
ज़िंदगी की ज़ुल्फ़ों को आप क्या संवारेंगे

हम तो वक़्त हैं पल हैं, तेज़ गाम घड़ियां हैं
बेकरार लमहे हैं, बेथकान सदियां हैं
कोई साथ में अपने, आए या नहीं आए
जो मिलेगा रस्ते में हम उसे पुकारेंगे

Friday, September 7, 2012

खबर क्या थी छुपी है मेरे दामन में भी चिंगारी ...


१९७३ में पकिस्तान में एक फिल्म आई थी – ‘दामन और चिंगारी’. मंज़ूर अशरफ़ के संगीत निर्देशन में एक बार फिर मेहदी हसन साहब ने मंसूर अनवर के गीत को आवाज़ बख्शी थी.

वही गीत सुनिए एक महफ़िल में दूसरे ही अंदाज़ में -



हमारे दिल से मत खेलो, खिलौना टूट जाएगा
ज़रा सी ठेस पहुंचेगी ये शीशा टूट जाएगा

यहाँ के लोग तो दो गाम चल के छोड़ देते हैं
ज़रा सी देर में बरसों के रिश्ते तोड़ देते हैं
खबर क्या थी कि किस्मत का सितारा डूब जाएगा

जो मिलते हैं बज़ाहिर दोस्त बनकर राज़दां बनकर
छुपे रहते हैं उनकी आस्तीनों में कई खंज़र
खुलेगी आँख तो सपना सुहाना टूट जाएगा

खबर क्या थी छुपी है मेरे दामन में भी चिंगारी
लगेगी आग गुलशन में जलेगी सारी फुलवारी
गिरेंगी बिजलियाँ इतनी नज़ारा टूट जाएगा.

Thursday, September 6, 2012

रोशन उसी के दम से था बुझता हुआ दिया


१९७० में पाकिस्तान में रिलीज़ हुई फिल्म ‘अनजान’ में मंज़ूर अशरफ़ के संगीत निर्देशन में उस्ताद मेहदी हसन ने मसरूर अनवर का लिखा एक गीत गाया था.

यहाँ एक महफ़िल में उस्ताद इस गीत को किस क्लासिकल अंदाज़ में पेश कर रहे हैं, गौर फरमाइए –




अपनों ने ग़म दिया तो मुझे याद आ गया
एक अजनबी जो गैर था और ग़मगुसार था

वो साथ थ तो दुनिया के ग़म दिल से दूर थे
खुशियों को साथ ले के न जाने कहाँ गया

दुनिया समझ रही है जुदा मुझ से हो गया
नज़रों से दूर जा के भी दिल से न जा सका

अब ज़िंदगी की कोई तमन्ना नहीं मुझे
रोशन उसी के दम से था बुझता हुआ दिया

Wednesday, September 5, 2012

दिल भी कम दुखता है वो याद भी कम आते हैं


मरहूम उस्ताद मेहदी हसन खान साहेब की आवाज़ में एक अपेक्षाकृत कम सुनी गयी महाकवि फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ की एक ग़ज़ल पेश है. सुख़नसाज़ के चाहनेवालों के लिए जल्दी ही उस्ताद की कुछेक और ऐसी ही कम्पोज़ीशंस पेश करता हूँ.



दिल में अब यूँ तेरे भूले हुये ग़म आते हैं
जैसे बिछड़े हुये काबे में सनम आते हैं

रक़्स-ए-मय तेज़ करो, साज़ की लय तेज़ करो
सू-ए-मैख़ाना सफ़ीरान-ए-हरम आते हैं 
 
और कुछ देर न गुज़रे शब-ए-फ़ुर्क़त से कहो
दिल भी कम दुखता है वो याद भी कम आते हैं

इक इक कर के हुये जाते हैं तारे रौशन
मेरी मन्ज़िल की तरफ़ तेरे क़दम आते हैं

कुछ हमीं को नहीं एहसान उठाने का दिमाग
वो तो जब आते हैं माइल-ब-करम आते हैं

Thursday, June 14, 2012

क्या तसल्ली का ऐसा सुर फिर सुनाई देगा ?

लगता है नहीं...उस्ताद मेहदी हसन के इंतेक़ाल के बाद सर्वत्र एक दु:खद वीराना पसरा पड़ा है.उस्तादजी के जाने से महज़ एक जिस्म नहीं गया,एक आवाज़ नहीं गई,एक रिवायत,एक अंदाज़ एक डिसिप्लीन और एक तसल्ली ही चली गई. जिस तरह से उन्होंने तमाम ग़ज़लों को बरता है वह अब कभी सुनाई नहीं देगा. अनूप जलोटा से बात हो रही थी तो बोले ज़रा सोचिये तकनीक और तमाशे की इस दुनिया में महज़ एक बाजा और तबला लेकर कोई साठ बरस तक बादशाहत करता रहा;क्या ये किसी करिश्मे से कम है. वाक़ई अनूप भाई ठीक कहते हैं. ये तय है कि बीते दस-बारह बरसों से उस्ताद एकदम निश्क्रिय थे पर न जाने क्यों एक आस सी थी कि हम उन्हें एक बार फिर गाता-मुस्कुराता देखेंगे.
ग़ज़ल को नौटंकी बना देने का कारोबार निर्बाध जारी है लेकिन जब उस्ताद के सुरीले आस्ताने पर आ जाएँ तो लगता है कि वाह ! दुनिया कितनी ख़ूबसूरत और सुरीली है...मुलाहिज़ा फ़रमाएँ आपकी मेरी न जाने कितनी बार सुनी हुई ये ग़ज़ल...गुलों में रंग भरे....सुख़नसाज़ पर पहले जारी हो चुकी पेशकश से अलहदा कुछ और विलम्बत...
आज उस्ताद मेहदी हसन के न होने पर जब वक़्त अपनी बेशर्मी से भाग रहा है...मुलाहिज़ा फ़रमाएँ...ये मध्दिम,मुलायम सी मनभावन कम्पोज़िशन और महसूस करें कि मेहदी हसन का जाना ज़िन्दगी से इत्मीनान का जाना भी है.


Wednesday, February 22, 2012

दिल की तबाही भूले नहीं हम, देते हैं अब तक उनको दुआएं


अख्तरी बाई यानी बेगम अख्तर किसी परिचय की मोहताज नहीं हैं. मलिका-ए-गज़ल के नाम से विख्यात बेगम अख्तर ने पुराने उस्तादों को जितना बखूबी गाया उतना ही अपने समकालीनों को. ग़ालिब और मीर जैसे उस्ताद शायर की रचनाओं को उन्होंने स्वर दिया तो शकील बदायूनी और सुदर्शन फाकिर को भी. गज़लों के चयन में उनकी सूझबूझ के अलावा शब्दों के विशिष्ट उच्चारण ने उन्हें सबसे अलग पहचान थी. आज उनकी गाई एक कम विख्यात रचना पेश है. शायर हैं तस्कीन कुरैशी.




अब तो यही हैं दिल से दुआएं
भूलने वाले भूल ही जाएँ

वजह-ए-सितम कुछ हो तो बतायें
एक मोहब्बत लाख ख़तायें

दर्द-ए-मोहब्बत दिल में छुपाया
आँख के आँसू कैसे छुपायें

होश और उनकी दीद का दावा
देखने वाले होश में आयें

दिल की तबाही भूले नहीं हम
देते हैं अब तक उनको दुआएं

रंग-ए-ज़माना देखने वाले
उनकी नज़र भी देखते जायें

शग़ल-ए-मोहब्बत अब है ये 'तस्कीन'
शेर कहें और जी बहलायें