Thursday, July 31, 2008

मेहदी हसन साहब की कक्षा में जानिये "आवारा गाना" क्या होता है

मेरे पास मेहदी हसन साहब का एक तीन सीडी वाला सैट है. विशुद्ध शास्त्रीय शैली में गाई उस्ताद की ग़ज़लों की इस पूरी श्रृंखला के नगीने मैं, जब-तब एक-एक कर आपकी खि़दमत में पेश करूंगा. आज आप बस उस्ताद को बोलते हुए सुनिए. महफ़िल शुरू करने से पहले वे अपने गायन का संक्षिप्त इतिहास बताते हुए ग़ज़ल-गायकी और शास्त्रीय संगीत की बारीकियों को तो बताते ही हैं, उर्दू शायरी के बड़े नामों का ज़िक्र भी बहुत अदब और मोहब्बत के साथ करते हैं.

मेहदी हसन साहब को चाहने वालों के लिए यह बहुत ख़ास प्रस्तुति:


Wednesday, July 30, 2008

सहर की आस तो है ज़िन्दगी की आस नहीं

फ़िराक गोरखपुरी साहब का एक शेर मुझे बहुत पसन्द है और इसीलिए मैंने इसे सुख़नसाज़ के साइडबार में स्थाई रूप से लगाया हुआ है:

मोहब्बत अब मोहब्बत हो चली है,
तुझे कुछ भूलता सा जा रहा हूं
ये सन्नाटा है मेरे पांव की चाप
'फ़िराक़' कुछ अपनी आहट पा रहा हूं

ये किसी महबूब शख़्स के लगातार भीतर रहने के बावजूद अपनी खु़द के पांवों की आहट सुन पाने का आत्मघाती हौसला है जो इश्क़ को इश्क बनाता है. दुनिया भर की तमाम कलाओं में न जाने कितनी मरतबा कितने-कितने तरीक़ों से इस शै को भगवान से बड़ा घोषित किया जा चुका है. लेकिन पीढ़ी-दर-पीढ़ी इन्सान अपनी औक़ात को भूल कर इस सर्वशक्तिमान से भिड़ता जाता है. इस भिड़ंत के निशान हमारी कलाओं में अनमोल धरोहरों की तरह सम्हाले हुए हैं.

छोड़िये ज़्यादा फ़िलॉसॉफ़ी नहीं झाड़ता पर इसी क्रम में फ़ैज़ साहब का एक और शेर जेहन में आ रहा है:


दुनिया ने तेरी याद से बेग़ाना कर दिया
तुझ से भी दिलफ़रेब हैं ग़म रोज़गार के.

और आज देखिए यहां उस्ताद क्या गा रहे हैं:

मुझे ये डर है तेरी आरज़ू न मिट जाए
बहुत दिनों से तबीयत मेरी उदास नहीं



वो दिलनवाज़ है लेकिन नज़रशनास नहीं
मेरा इलाज मेरे चारागर के पास नहीं

गुज़र रहे हैं अजब मरहलों से दीदः-ओ-दिल
सहर की आस तो है, ज़िन्दगी की आस नहीं

कभी-कभी जो तेरे क़ुर्ब में गुज़ारे थे
अब उन दिनों का तसव्वुर भी मेरे पास नहीं

मुझे ये डर है तेरी आरज़ू न मिट जाए
बहुत दिनों से तबीयत मेरी उदास नहीं

Tuesday, July 29, 2008

मौत भी आई तो इस नाज़ के साथ, मुझ पे अहसान किया हो जैसे

जनाब अहसान दानिश की यह ग़ज़ल मुझे इस एक ख़ास शेर के कारण बहुत ऊंचे दर्ज़े की लगती रही है:

इश्क़ को शिर्क की हद तक न बढ़ा
यूं न छुप हम से ख़ुदा हो जैसे


और जब गाने वाले उस्ताद मेहदी हसन हों तो और क्या चाहिये.




यूं न मिल मुझ से ख़फ़ा हो जैसे
साथ चल मौज-ए-सबा हो जैसे

लोग यूं देख के हंस देते हैं
तू मुझे भूल गया हो जैसे

इश्क़ को शिर्क की हद तक न बढ़ा
यूं न छुप हम से ख़ुदा हो जैसे

मौत भी आई तो इस नाज़ के साथ
मुझ पे अहसान किया हो जैसे

(मौज-ए-सबा: हवा का झोंका, शिर्क: ईश्वर को बुरा भला कहना - Blasphemy)

Monday, July 28, 2008

और फिर किस से करेंगे वो हया मेरे बाद

कुछ दिन पहले मैंने मेहदी हसन साहब के एक अलबम 'दरबार-ए-ग़ज़ल' का ज़िक्र किया था. आज उसी से सुनिए नासिर काज़मी की एक ग़ज़ल:



ज़िन्दगी को न बना दें वो सज़ा मेरे बाद
हौसला देना उन्हें मेरे ख़ुदा मेरे बाद

कौन घूंघट को उठाएगा सितमगर कह के
और फिर किस से करेंगे वो हया मेरे बाद

हाथ उठते हुए उनके न देखेगा
किस के आने की करेंगे वो दुआ मेरे बाद

फिर ज़माने मुहब्बत की न पुरसिश होगी
रोएगी सिसकियां ले-ले के वफ़ा मेरे बाद

वो जो कहता था कि 'नासिर' के लिए जीता हूं
उसका क्या जानिए, क्या हाल हुआ मेरे बाद

Sunday, July 27, 2008

जिन्हें एतमाद-ए-बहार था, वो ही फूल रंग बदल गए

शायर लखनवी की यह ग़ज़ल थोड़ा कम लोकप्रिय हुई. ख़ां साहब की आवाज़ में आज की ख़ास पेशकश:



जो ग़मे हबीब से दूर थे, वो ख़ुद अपनी आग में जल गए
जो ग़मे हबीब को पा गए, वो ग़मों से हंस के निकल गए

जो थके थके से थे हौसले, वो शबाब बन के मचल गए
वो नज़र-नज़र से गले मिले, तो बुझे चिराग़ भी जल गए

ये शिकस्त-ए-दीद की करवटें भी बड़ी लतीफ़-ओ-जमील थीं
मैं नज़र झुका के तड़प गया, वो नज़र बचा के निकल गए

न ख़िज़ा में है कोई तीरगी, न बहार में कोई रोशनी
ये नज़र-नज़र के चिराग़ हैं, कहीं बुझ गए कहीं जल गए

जो संभल-संभल के बहक गए, वो फ़रेब ख़ुर्द-ए-राह थे
वो मक़ाम-ए-इश्क़ को पा गए, जो बहक-बहक के संभल गए

जो खिले हुए हैं रविश-रविश, वो हज़ार हुस्न-ए-चमन सही
मगर उन गुलों का जवाब क्या जो कदम-कदम पे कुचल गए

न है शायर अब ग़म-ए-नौ-ब-नौ न वो दाग़-ए-दिल न आरज़ू
जिन्हें एतमाद-ए-बहार था, वो ही फूल रंग बदल गए

(हबीब: मेहबूब, शिकस्त-ए-दीद: नज़र की हार, लतीफ़-ओ-जमील: आकर्षक और आनन्ददायक, खिज़ा: पतझड़, तीरगी: अन्धेरा, ख़ुर्द: सूक्ष्म, रविश: बग़ीचे के बीच छोटे-छोटे रास्ते, नौ-ब-नौ: ताज़ा, एतमाद: पक्का यक़ीन)

Saturday, July 26, 2008

जहां कहीं था हिना को खिलना, हिना वहीं पे महक रही है

आज सुनते हैं उस्ताद को थोड़ा सा हल्के मूड में. सुनते हुए आप को कोई पहले से सुने किसी गीत या ग़ज़ल की याद आने लगे तो अचरज नहीं होना चाहिए. मुझे ठीक ठीक तो पता नहीं लेकिन एक साहब ने कभी बताया था कि उस्ताद ने इसे एक फ़िल्म के लिए रिकॉर्ड किया था. यदि कोई सज्जन इस विषय पर कुछ रोशनी डाल सकें, तो अहसान माना जाएगा:



हमारी सांसों में आज तक वो हिना की ख़ुशबू महक रही है
लबों पे नग़्मे मचल रहे हैं, नज़र से मस्ती छलक रही है

कभी जो थे प्यार की ज़मानत, वो हाथ हैं ग़ैर की अमानत
जो कसमें खाते थे चाहतों की उन्हीं की नीयत बहक रही है

किसी से कोई गिला नहीं है, नसीब ही में वफ़ा नहीं है
जहां कहीं था हिना को खिलना, हिना वहीं पे महक रही है

वो जिनकी ख़ातिर ग़ज़ल कही थी, वो जिनकी ख़ातिर लिखे थे नग़्मे
उन्हीं के आगे सवाल बन के ग़ज़ल की झांझर झनक रही है

Thursday, July 24, 2008

फूल खिले शाख़ों पर नये और दर्द पुराने याद आए

आवाज़ का सोज़,शायरी में कहा-अनकहा गाने और मौसीक़ी के ज़रिये ख़ुद एक नाकाम प्रेमी बन जाने का हुनर मेहदी हसन साहब से बेहतर कौन जानता है. गायकी के ठाठ का जलवा और फ़िर भी उसमें एक लाजवाब मासूमियत (जो इस ग़ज़ल की ज़रूरत है)कैसे बह निकली है इस ग़ज़ल में.एक एक शब्द के मानी जैसे गले में गलाते जा रहे हैं उस्ताद.या कभी ऐसे सुनाई दे रहे जैसे अपनी माशूका के गाँव में आकर नदी किनारे पर एक दरख़्त के नीचे आ बैठे हैं जहाँ कभी रोज़ आना था,मुलाक़ातें थी,बातें थीं,अपनेपन थी,रूठने थे,मनाने थे.

अगर सुनने वाला ज़रा सा भी भावुक है तो अपने सुखी/दुखी माज़ी में अपने आप चला जाता है. कभी गले से, कभी बाजे से कहर ढाते मेहंदी हसन साहब जैसे ज़माने भर का दर्द अपनी आवाज़ में समेट लाए हैं. कैसी विकलता है अपनी कहानी कहने की.जैसे महावर लगे पैसे में कोई तीख़ा काँटा चुभ आया है.अब कहना भी है और रोना भी आ रहा है. बात पूरी जानी चाहिये. दीवानगी के प्रवक्ता बन गए हैं मेहंदी हसन साहब. रागदारी का पूरा शबाब, गोया वाजिद अली शाह के दरबार में गा रहे हों... ग़ज़ल को ठुमरी अंग से सँवारते. आवाज़ से चित्रकारी न देखी हो तो इस ग़ज़ल को सुनिये लगेगा मन, मौसम, विवशता, रिश्ते और रूहानी तबियत के कमेंटेटर बन बैठे हैं मेहदी हसन साहब.

शायरी को कैसे पिया और जिया जाता है , उस्ताद मेहदी हसन की इस ग़ज़ल में महसूस कीजिये. न जाने कितने दिलजलों को आवाज़ दे दी है उन्होनें इस ग़ज़ल से.ठंडी सर्द हवा के झोंके ..वाला मतला गाते वक़्त तो ऐसा लगता है जैसे जिस्म में हवा घुसे चले जा रही है और किसी की याद में आग के सामने बैठी विरहिणी ज़ार ज़ार आँसू बहाती अपने दुपटटे का कोना उंगलियों पर लपेट रही है...खोल रही है ..और इस सब में अपने प्रियतम के साथ गुज़रा ज़माना साकार हो रहा है.

अपनी बात इस नोट पर ख़त्म करना चाहता हूँ कि मेहदी हसन की ये ग़ज़लें न होती तो असंख्य दिल अपनी बात कहने की इबारतें कहाँ से लाते ?

जी चाहता मर जाइये इस ग़ज़ल पर...ज़माने में है कुछ मेहंदी हसन की आवाज़ के सिवा ... ग़ज़ल रज़ी तीरमाज़ी साहब की है जिनकी एक और रचना 'दिल वालो क्या देख रहे हो' को ग़ुलाम अली ने बड़ा मीठा गाया था.




भूली बिसरी चांद उम्मीदें, चंद फ़साने याद आये
तुम याद आये और तुम्हारे साथ ज़माने याद आये

दिल का चमन शादाब था फिर भी ख़ाक सी उडती रहती थी
कैसे ज़माने ग़म-ए-जानां तेरे बहाने याद आये

ठंडी सर्द हवा के झोंके आग लगा कर छोड़ गए
फूल खिले शाखों पे नए और दर्द पुराने याद आये

हंसने वालों से डरते थे, छुप छुप कर रो लेते थे
गहरी - गहरी सोच में डूबे दो दीवाने याद आये

दिल ने भी तेरे सीख लिए हैं चलन तमाम



ग़ुलाम अली द्वारा विख्यात की गई ग़ज़ल 'चुपके-चुपके रात दिन आंसू बहाना याद है' लिखने वाले हसरत मोहानी साहब (१८८१-१९५१) की ग़ज़ल गा रहे हैं उस्ताद मेहदी हसन:




रोशन जमाल-ए-यार से है अंजुमन तमाम
दहका हुआ है आतिश-ए-गुल से चमन तमाम

हैरत ग़ुरूर-ए-हुस्न से शोखी से इज़्तराब
दिल ने भी तेरे सीख लिए हैं चलन तमाम

अल्लाह रे जिस्म-ए-यार की ख़ूबी कि ख़ुद-ब-ख़ुद
रंगीनियों में डूब गया पैराहन तमाम

देखो तो हुस्न-ए-यार की जादू निगाहियां
बेहोश इक नज़र में अंजुमन तमाम

Wednesday, July 23, 2008

जिस दिल पे नाज़ था मुझे, वो दिल नहीं रहा

मिर्ज़ा असदुल्ला ख़ां 'ग़ालिब' ने शुरुआती ग़ज़लें 'असद' तख़ल्लुस (उपनाम) से की थीं. आज सुनिये मिर्ज़ा नौशा उर्फ़ चचा ग़ालिब उर्फ़ असदुल्ला ख़ां 'असद' की एक ग़ज़ल.

इस ग़ज़ल में उस्ताद मेहदी हसन साहब की आवाज़ जवान है और अभी उस में उम्र, उस्तादी और फ़कीरी के रंगों का गहरे उतरना बाक़ी है. यह बात दीगर है कि कुछ ही साल पहले दिए गए एक इन्टरव्यू में उस्ताद इसे अपनी गाई सर्वोत्तम रचनाओं में शुमार करते हैं.




अर्ज़-ए-नियाज़-ए-इश्क़ के क़ाबिल नहीं रहा
जिस दिल पे नाज़ था मुझे वो दिल नहीं रहा

मरने की, अय दिल, और ही तदबीर कर, कि मैं
शायान-ए-दस्त-ओ-बाज़ु-ए-का़तिल नहीं रहा

वा कर दिए हैं शौक़ ने, बन्द-ए-नकाब-ए-हुस्न
ग़ैर अज़ निगाह, अब कोई हाइल नहीं रहा

बेदाद-ए-इश्क़ से नहीं डरता मगर असद
जिस दिल पे नाज़ था मुझे, वो दिल नहीं रहा

(अर्ज़-ए-नियाज़-ए-इश्क़: प्रेम के प्रति श्रद्धा की अभिव्यक्ति, शायान-ए-दस्त-ओ-बाज़ु-ए-का़तिल: क़ातिल के हाथों मारे जाने लायक, वा: खुला हुआ, बन्द-ए-नकाब-ए-हुस्न: प्रेमिका के नक़ाब के बन्धन, ग़ैर अज़ निगाह: निगाह के सिवा, हाइल: बाधा पहुंचाने वाला, बेदाद-ए-इश्क़: मोहब्बत का ज़ुल्म)

Tuesday, July 22, 2008

याद आई मेरे ईसा को दवा मेरे बाद

तब न कविता लिखने की तमीज़ थी न संगीत समझने की. बीस-बाईस की उम्र थी और मीर बाबा का दीवान सिरहाने रख कर सोने का जुनून था. उनके शेर याद हो जाया करते और सोते-जागते भीतर गूंजा करते. कहीं से किसी ने एक कैसेट ला के दे दिया. लगातार-लगातार रिवाइन्ड कर उस में से "आ के सज्जादः नशीं क़ैस हुआ मेरे बाद" सुनने और आख़िर में आवेश की सी हालत में आ जाने की बहुत ठोस यादें हैं. उसी क्रम में मीर बाबा की आत्मकथा 'ज़िक्र-ए-मीर' से परिचय हुआ. मीर उस में अपनी वसीयत में देखिए क्या लिख गए:

"बेटा, हमारे पास दुनिया के धन-दौलत में से तो कोई चीज़ नहीं है जो आगे चलकर तुम्हारे काम आये, लेकिन हमारी सबसे बड़ी पूंजी, जिस पर हमें गर्व है, क़ानून-ए-ज़बान (भाषा के सिद्धान्त) है, जिस पर हमारा जीवन और मान निर्भर रहा, जिसने हमें अपमान के खड्डे में से निकाल कर प्रसिद्धि के शिखर पर पहुंचा दिया. इस दौलत के आगे हम विश्व की हुकूमत को भी तुच्छ समझते रहे. तुम को भी अपने तरके (पैतृक सम्पत्ति) में से यही दौलत देते हैं"

बहुत सालों बाद पता लगा कि यह ग़ज़ल, जो मैं आपको सुनवाने जा रहा हूं, दर असल मीर तक़ी मीर की है ही नहीं. अली सरदार ज़ाफ़री के मुताबिक इस ग़ज़ल के शेर लखनऊ के एक शायर अमीर के हैं जबकि मक़्ता संभवतः मौलाना शिबली द्वारा 'शेरुल अजम' में कहीं से ग़ाफ़िल लखनवी या मिर्ज़ा मोहम्मद तक़ी हवस के नाम से नकल किया गया था.

मुझे अपनी इस खुशफ़हमी को बनाए रखना अच्छा लगता है कि बावजूद विद्वानों के अलग विचारों के, मैं इस ग़ज़ल को अब भी मीर तक़ी मीर की ही मानता हूं क्योंकि कहीं न कहीं चेतन-अचेतन में इसी ने मुझे मीर बाबा और उस्ताद मेहदी हसन का मुरीद बनाया था और उनके रास्ते अपार आनन्द के सागर तक पहुंचाया.

उस्ताद मेहदी हसन ख़ां साहब एक बार फिर से:




आ के सज्जादः नशीं क़ैस हुआ मेरे बाद
न रही दश्त में ख़ाली कोई जा मेरे बाद

चाक करना है इसी ग़म से गिरेबान-ए-कफ़न
कौन खोलेगा तेरे बन्द-ए-कबा तेरे बाद

वो हवाख़्वाह-ए-चमन हूं कि चमन में हर सुब्ह
पहले मैं जाता था और बाद-ए-सबा मेरे बाद

तेज़ रखना सर-ए-हर ख़ार को ऐ दश्त-ए-जुनूं
शायद आ जाए कोई आबला पा मेरे बाद

मुंह पे रख दामन-ए-गुल रोएंगे मुर्ग़ान-ए-चमन
हर रविश ख़ाक उड़ाएगी सबा मेरे बाद

बाद मरने के मेरी क़ब्र पे आया वो 'मीर'
याद आई मेरे ईसा को दवा मेरे बाद

(सज्जादः नशीं: किसी मस्जिद या मज़ार का प्रबंधन करने वाले की मौत के बाद उसकी गद्दी संभालने वाला, क़ैस: मजनूं, दश्त: जंगल, जा: जगह, चाक करना: फ़ाड़ना, गिरेबान-ए-कफ़न: कफ़न रूपी वस्त्र, बन्द-ए-कबा: वस्त्रों में लगाई जाने वाली गांठें, हवाख़्वाह-ए-चमन: बग़ीचे में हवाख़ोरी करने का शौकीन, सबा: सुबह की समीर, सर-ए-हर ख़ार: हर कांटे की नोक, दश्त-ए-जुनूं: पागलपन का जंगल, आबला: जिसके पैर में छाले पड़े हों, मुर्ग़ान-ए-चमन: उद्यान के पक्षी)

Monday, July 21, 2008

इश्क़ इक मीर भारी पत्थर है

"क़द्रदानी ने उनके कलाम को जौहर और मोतियों की निगाहों से देखा और नाम को फूलों की महक बना कर उड़ाया. हिन्दुस्तान में यह बात उन्हीं को नसीब हुई है कि मुसाफ़िर,ग़ज़लों को तोहफ़े के तौर पर शहर से शहर में ले जाते थे"

आधुनिक उर्दू कविता के प्रमुख नाम और उर्दू साहित्य के इतिहास 'आब-ए-हयात' के लेखक मोहम्मद हुसैन आज़ाद ने ये शब्द ख़ुदा-ए-सुख़न मीर तक़ी 'मीर' के बारे में दर्ज़ किये हैं.

"आप बे बहरा है जो मो'तक़िद-ए-मीर नहीं" अब एक ब्रह्मवाक्य का दर्ज़ा हसिल कर चुका है. उर्दू ज़ुबान को अवामी रंग देने का काम दकन में वली ने किया तो उत्तर भारत में ऐसा करने वाले मीर तक़ी थे. मीर बाबा की शायरी कई दफ़ा कन्टेन्ट और एक्स्प्रेशन के सारे स्थापित मापदण्डों से परे पहुंच जाती है और पढ़ने वाला हैरत में आ जाता है कि ऐसा हो कैसे सकता है. लेकिन कविता की यही मूलभूत ताक़त है. दो-ढाई सौ वर्षों बाद भी उनकी शायरी अपनी ख़ुशबू से तमाम जहां को अपना दीवाना बनाए हुए है.

खुदा-ए-सुख़न मीर को जब शहंशाह-ए-ग़ज़ल गाएं तो क्या होगा.

सुनिये और तय कीजिए:




देख तो दिल कि जां से उठता है
ये धुंआं सा कहां से उठता है

गोर किस दिलजले की है ये फ़लक
शोला इस सुबह यां से उठता है

यूं उठे आह उस गली से हम
जैसे कोई जहां से उठता है

बैठने कौन दे है फिर दे है उस को
जो तेरे आस्तां से उठता है

इश्क़ इक मीर भारी पत्थर है
कब ये तुझ नातवां से उठता है

(गोर: कब्र, फ़लक: आसमान, नातवां: कमज़ोर)

Sunday, July 20, 2008

अब के हम बिछड़े तो शायद कभी ख़्वाबों में मिलें

मेहदी हसन साहब की जो प्यारी महफ़िल अशोक भाई ने सजाई है वह बार बार हमें ये याद दिलाती है कि एशिया उप-महाद्वीप में ख़ाँ साहब के पाये का गूलूकार न हुआ है न होगा. एक कलाकार अपने हुनर से अपने जीवन काल में ही एक घराना बन गया. शास्त्रीय संगीत के वे पंडित मुझे माफ़ करें क्योंकि उनका मानना है कि तीन पीढ़ियों तक गायकी की रिवायत होने पर ही घराने को मान्यता मिलती है.लेकिन मेहंदी हसन साहब एक अपवाद हैं क्योंकि उन्होंने ग़ज़ल गायन की एक मुकम्मिल परम्परा को ईजाद कर न जाने कितनों को ग़ज़ल सुनने का शऊर दिया है. ज़रा याद तो करें कि इस सर्वकालिक महान गायक के पहले ग़ज़ल इतनी लोकप्रिय कहाँ थी.फ़िल्मों और तवायफ़ों के कोठों की बात छोड़ दें.बिला शक आम आदमी तक ग़ज़ल को पहुँचाने में मेहदी हसन का अवदान अविस्मरणीय रहेगा.

शायरी की समझ, कम्पोज़िशन्स में क्लासिकल मौसीक़ी का बेहतरीन शुमार और गायकी में एक विलक्षण अदायगी मेहंदी हसन साहब की ख़ासियत रही है. वे ग़ज़ल के मठ हैं . वे ग़ज़ल की काशी हैं , क़ाबा हैं ख़ाकसार को कई नयी आवाज़ों को सुनने और प्रस्तुत करने का मौका गाहे-बगाहे मिलता ही रहा है और मैने महसूस किया है कि नब्बे फ़ीसद आवाज़ें मेहदी हसन घराने से मुतास्सिर हैं .और इसमें बुरा भी क्या है. सुनकारी की तमीज़ को निखारने में मेहदी हसन साहब का एक बड़ा एहसान है हम पर.ग़ज़ल पर कान देने और दाद देने का हुनर उन्हीं से तो पाया है हमने.तक़रीबन आधी सदी तक अपनी मीठी आवाज़ के
ज़रिये मेहदी हसन साहब ने न जाने कितने ग़ज़ल मुरीद पैदा कर दिये हैं . शायरों की बात को तरन्नुम की पैरहन देकर इस महान गूलूकार ने क्या क्या करिश्मे किये हैं उससे पूरी दुनिया वाक़िफ़ है हमारी क़लम में वो ताक़त कहाँ जो उनके किये का गुणगान कर सके. मजमुओं से ग़ज़ल जब मेहंदी हसन के कंठ में आ समाती है तो जैसे उसका कायाकल्प हो जाता है.

ग़ज़ल पर अपनी आवाज़ का वर्क़ चढ़ा कर ख़ाँ साहब किसी भी रचना को अमर करने का काम अंजाम देते आए हैं और हम सब सुनने वाले स्तब्ध से उस पूरे युग के साक्षी बनने के अलावा कर भी क्या सकते हैं और हमारी औक़ात भी क्या है.

मेहदी हसन साहब और अहमद फ़राज़ साहब की कारीगरी का बेजोड़ नमूना पेश-ए-ख़िदमत है..मुलाहिज़ा फ़रमाएं और स्वर की छोटी छोटी हरक़तों से एक ग़ज़ल को रोशन होते सुनें.एक ख़ास बात ...मेहंदी हसन साहब ने अब के हम बिछड़े तो शायद कभी ख़्वाबो (में) मिले गाते वक़्त इस (में) पर मौन हो गए हैं ...अब इस मौन से बहर छोटी होने के ख़तरे को उन्होने गायकी से कैसे पाटा है आप ही सुन कर महसूस कीजिये. मतला दर मतला ग़ज़ल जवान कैसे होती है इस बंदिश में तलाशिये.

और हाँ ध्यान दीजियेगा कि अंतरे में (मतले या मुखड़े के बाद का शेर)ख़ाँ साहब आवाज़ को एक ऐसी परवाज़ देते हैं जहाँ उनका स्वर उनके पिच से बाहर जा रहा है तो क्या मेहंदी हसन साहब को अपने गले की हद मालूम नहीं ? जी नहीं जनाब,स्वर को बेसाख़्ता परेशान करना इस ग़ज़ल की ज़रूरत है जो गाने वाले की बैचैनी का इज़हार कर रही है,वो बैचैनी जो शायर ने लिखते वक़्त महसूस की है.पिच के बाहर जाने के बहाने मेहदी हसन सुनने वाले का राब्ता बनाना चाह रहे हैं और बनाते हैं कई ग़ज़लों में, ज़रूरत सिर्फ़ महसूस करने की है.तो ग़ज़ल गायकी के इस उस्ताद की पेशकश पर किसी तरह का शुबहा न करें बस डूब भर जाएँ.

ख़ुसरो ने कहा भी तो है न...जो उतरा सो डूब गया और जो डूबा सो पार.




अब के हम बिछड़े तो शायद कहीं ख़्वाबों में मिलें
जिस तरह सूखे हुए फूल किताबों में मिलें

ढूँढ उजड़े हुए लोगों में वफ़ा के मोती
ये ख़ज़ाने तुझे मुमकिन है ख़राबों में मिलें

तू ख़ुदा है न मेरा इश्क़ फ़रिश्तों जैसा
दोनों इन्सां हैं तो क्यों इतने हिजाबों में मिलें

ग़म-ए-दुनिया भी ग़म-ए-यार में शामिल कर लो
नश्शा बढ़ता है शराबें जो शराबों में मिलें

अब न वो मैं हूं न तू है न वो माज़ी है फ़राज़
जैसे दो साये तमन्‍ना के सराबों में मिलें

(हिजाब: परदा, ख़राबा: मरुमारीचिका, माज़ी: बीता हुआ समय)

राग मालकौंस और सोहनी का मिलाप: डूब कर भी तेरे दरिया से मैं प्यासा निकला

लगातार बारिशें हैं मेरे नगर में कई-कई दिनों से.

सब कुछ गीला-सीला.

हरा-सलेटी.

भावनात्मक रूप जुलाई और अगस्त मेरे सबसे प्यारे और उतने ही कष्टकारी महीने होते हैं. उस्ताद मेहदी हसन साहब की संगत में सालों - साल इन महीनों को काटने की आदत अब पुरानी हो चुकी है. नोस्टैज्लिया शब्द इस क़दर घिसा लगने लगता है उस अहसास के आगे जो, भाई संजय पटेल के शब्दों में उस्ताद के आगे नतमस्तक बैठे रहने में महसूस होता है.

अहमद नदीम क़ासमी (नवम्बर 20, 1916 – जुलाई 10, 2006) की ग़ज़ल पेश है:




क्या भला मुझ को परखने का नतीज़ा निकला
ज़ख़्म-ए-दिल आप की नज़रों से भी गहरा निकला

तोड़ कर देख लिया आईना-ए-दिल तूने
तेरी सूरत के सिवा और बता क्या निकला

जब कभी तुझको पुकारा मेरी तनहाई ने
बू उड़ी धूप से, तसवीर से साया निकला

तिश्नगी जम गई पत्थर की तरह होंठों पर
डूब कर भी तेरे दरिया से मैं प्यासा निकला

(तिश्नगी: प्यास)

रंग बिरंगे तन वालों का, सच ये है मन खाली है

'कहना उसे' से उस्ताद मेहदी हसन ख़ान साहब की आवाज़ में फ़रहत शहज़ाद की एक और ग़ज़ल:



सब के दिल में रहता हूं पर दिल का आंगन ख़ाली है
खु़शियां बांट रहा हूं जग में, अपना दामन ख़ाली है

गुल रुत आई, कलियां चटखीं, पत्ती-पत्ती मुसकाई
पर इक भौंरा न होने से गुलशन -गुलशन ख़ाली है

रंगों का फ़ुक दाम नहीं हर चन्द यहां पर जाने क्यूं
रंग बिरंगे तन वालों का, सच ये है मन खाली है

दर-दर की ठुकराई हुई ए मेहबूबा-ए-तनहाई
आ मिल जुल कर रह लें इस में, दिल का नशेमन ख़ाली है

(*आज लाइफ़लॉगर दिक्कत कर रहा है. उस के चालू होते ही प्लेयर बदल दिया जाएगा)

Friday, July 18, 2008

तेरी महफ़िल में लेकिन हम न होंगे

अब आप ही बताइए, इस ग़ज़ल के लिए क्या प्रस्तावना बांधी जाए?

अपने-अपने तरीके से नॉस्टैल्जिया महसूस करते हुए सुनें उस्ताद की यह कमाल रचना. क़लाम 'हफ़ीज़' जालन्धरी साहब का है:




मोहब्बत करने वाले कम न होंगे
तेरी महफ़िल में लेकिन हम न होंगे

ज़माने भर के ग़म या इक तेरा ग़म
ये ग़म होगा तो कितने ग़म न होंगे

अगर तू इत्तिफ़ाक़न मिल भी जाए
तेरी फ़ुरकत के सदमे कम न होंगे

दिलों की उलझनें बढ़ती रहेंगी
अगर कुछ मशविरे बाहम न होंगे

हफ़ीज़ उनसे मैं जितना बदगुमां हूं
वो मुझ से इस क़दर बरहम न होंगे

(फ़ुरकत: विरह, बाहम: आपस में)

Thursday, July 17, 2008

मैं उसे जितना समेटूं, वो बिखरता जाए

एह एम वी ने क़रीब बीस साल पहले मेहदी हसन साहब की लाइव कन्सर्ट का एक डबल कैसेट अल्बम जारी किया था: 'दरबार-ए-ग़ज़ल'. उस में पहली ही ग़ज़ल थी आलम ताब तश्ना की 'वो कि हर अहद-ए-मोहब्बत से मुकरता जाए'. बहुत अलग अन्दाज़ था उस पूरी अल्बम की ग़ज़लों का, गो यह बात अलग है कि उसकी ज़्यादातर रचनाओं को वह शोहरत हासिल नहीं हुई. हसन साहब की आवाज़ में शास्त्रीय संगीत के पेंच सुलझते चले जाते और अपने साथ बहुत-बहुत दूर तलक बहा ले जाया करते थे.

कुछेक सालों बाद बांग्लादेश के मेरे बेहद अज़ीज़ संगीतकार मित्र ज़ुबैर ने वह अल्बम ज़बरदस्ती मुझसे हथिया लिया था. उसका कोई अफ़सोस नहीं मुझे क्योंकि ज़ुबैर ने कई-कई मर्तबा उन्हीं ग़ज़लों को अपनी मख़मल आवाज़ में मुझे सुनाया. ज़ुबैर के चले जाने के कुछ सालों बाद तक मुझे इस अल्बम की याद आती रही ख़ास तौर पर उस ग़ज़ल की जिसका ज़िक्र मैंने ऊपर किया. यह संग्रह बहुत खोजने पर कहीं मिल भी न सका. कुछ माह पहले एक मित्र की गाड़ी में यूं ही बज रही वाहियात चीज़ों के बीच अचानक यही ग़ज़ल बजने लगी. बीस रुपए में मेरे दोस्त ने दिल्ली-नैनीताल राजमार्ग स्थित किसी ढाबे से सटे खोखे से गाड़ी में समय काटने के उद्देश्य से 'रंगीन गजल' शीर्षक यह पायरेटेड सीडी खरीदी थी. नीम मलबूस हसीनाओं की नुमाइशें लगाता उस सीडी का आवरण यहां प्रस्तुत करने लायक नहीं अलबत्ता आलम ताब तश्ना साहब की ग़ज़ल इस जगह पेश किए जाने की सलाहियत ज़रूर रखती है. ग़ज़ल का यह संस्करण 'दरबार-ए-ग़ज़ल' वाले से थोड़ा सा मुख़्तलिफ़ है लेकिन है लाइव कन्सर्ट का हिस्सा ही.

सुनें:




वो कि हर अहद-ए-मोहब्बत से मुकरता जाए
दिल वो ज़ालिम कि उसी शख़्स पे मरता जाए

मेरे पहलू में वो आया भी तो ख़ुशबू की तरह
मैं उसे जितना समेटूं, वो बिखरता जाए

खुलते जाएं जो तेरे बन्द-ए-कबा ज़ुल्फ़ के साथ
रंग पैराहन-ए-शब और निखरता जाए

इश्क़ की नर्म निगाही से हिना हों रुख़सार
हुस्न वो हुस्न जो देखे से निखरता जाए

क्यों न हम उसको दिल-ओ-जान से चाहें 'तश्ना'
वो जो एक दुश्मन-ए-जां प्यार भी करता जाए

(अहद-ए-मोहब्बत: प्यार में किये गए वायदे, पैराहन-ए-शब: रात्रि के वस्त्र, हिना हों रुख़सार: गालों पर लाली छा जाए)

Wednesday, July 16, 2008

वो न समझा है न समझेगा मगर कहना उसे

मेहदी हसन साहब के अलबम 'कहना उसे' से एक ग़ज़ल आप पहले भी सुन चुके हैं. आज सुनिये इसी संग्रह की शीर्षक ग़ज़ल:



कोपलें फिर फूट आईं शाख़ पर कहना उसे
वो न समझा है न समझेगा मगर कहना उसे

वक़्त का तूफ़ान हर इक शै बहा के ले गया
कितनी तन्हा हो गई है रहगुज़र कहना उसे

जा रहा है छोड़ कर तनहा मुझे जिसके लिए
चैन ना दे पाएगा वो सीम-ओ-ज़र कहना उसे

रिस रहा हो ख़ून दिल से लब मगर हंसते रहें
कर गया बरबाद मुझ को ये हुनर कहना उसे

जिसने ज़ख़्मों से मेरा'शहज़ाद' सीना भर दिया
मुस्करा कर आज प्यारे चारागर कहना उसे

(सीम-ओ-ज़र: धन-दौलत, चारागर: चिकित्सक)

Tuesday, July 15, 2008

काँटों का भी हक़ है कुछ आख़िर, कौन छुड़ाए अपना दामन



जनाब अली सिकन्दर उर्फ़ जिगर मुरादाबादी साहब की अविस्मरणीय ग़ज़ल को गा रही हैं बेग़म अख़्तर:



कोई ये कह दे गुलशन गुलशन
लाख बलाएँ एक नशेमन

फूल खिले हैं गुलशन गुलशन
लेकिन अपना अपना दामन

आज न जाने राज़ ये क्या है
हिज्र की रात और इतनी रोशन

रहमत होगी तालिब-ए-इसियाँ
रश्क करेगी पाकी-ए-दामन

काँटों का भी हक़ है कुछ आख़िर
कौन छुड़ाए अपना दामन

Monday, July 14, 2008

लो दिल की बात आप भी हम से छुपा गए

रेशमा आपा का 'दर्द' अभी जारी है. सुनिये उसी संग्रह से एक और ग़ज़ल. संभवतः ग़ज़ल सुरेन्दर मलिक 'गुमनाम' की है, जिनकी बहुत सारी ग़ज़लें ग़ुलाम अली ने अपने 'हसीन लम्हे' सीरीज़ में गाई थीं. यह सीरीज़ और रेशमा का संग्रह 'दर्द' दोनों क़रीब - क़रीब एक साथ वेस्टन ने निकाले थे.



लो दिल की बात आप भी हम से छुपा गए
लगता है आप ग़ैरों की बातों में आ गए

मेरी तो इल्तिजा थी, रक़ीबों से मत मिलो
उनके बिछाए जाल में लो तुम भी आ गए

ये इश्क़ का सफ़र है, मंज़िल है इस की मौत
घायल जो करने आए थे, वही चोट खा गए

रोना था मुझ को उन के दामन में ज़ार-ज़ार
पलकों के मेरे अश्क़ उन्हीं को रुला गए

'गुमनाम' भूलता नहीं वो तेरी रहगुज़र
जिस रहगुज़र पे प्यार की शम्मः बुझा गए

पिछली पोस्ट का लिंक:

देख हमारे माथे पर ये दश्त-ए-तलब की धूल मियां

Sunday, July 13, 2008

ये तो कहो कभी इश्क़ किया है, जग में हुए हो रुसवा भी

रेशमा आपा का संग्रह 'दर्द' मेरे दिल के बहुत नज़दीक है. इस अलबम से मेरा परिचय पहली बार उनके असली रूप से हुआ. एक तो हमारे छोटे से कस्बे में उस मिजाज़ के कैसेट मिलते ही नहीं थे. हद से हद कभी कभी गु़लाम अली या मेहदी हसन साहब हाथ लग जाते थे. ज़्यादातर अच्छा संगीत हमें दोस्तों के दिल्ली-लखनऊ जैसे बड़े शहरों से आये मित्र-परिचितों के माध्यम से मिला करता था.हल्द्वानी जैसे निहायत कलाहीन नगर में रेशमा का यह कैसेट मिलना जैसे किसी चमत्कार की तरह घटा. कई सालों तक उसे लगातार-लगातार सुना गया और पांचेक साल पहले किन्हीं पारकर साहब की कृपा का भागी बन गया.

आज सुबह से इंशा जी की किताब पढ़ रहा था. उसमें 'देख हमारे माथे पर' ग़ज़ल वाले पन्ने पर पहुंचते ही दिल को रेशमा आपा की आवाज़ में इस ग़ज़ल की बेतरह याद उठना शुरू हुई.

कुछ दिन पहले अपने मित्र सिद्धेश्वर बाबू ने इस अलबम का ज़िक्र किया था. उम्मीद के साथ उन्हें फ़ोन लगाया पर उनके वाले कैसेट को भी पारकर साहब की नज़र लग चुकी थी.ज़रा देर बाद सिद्धेश्वर का फ़ोन आया कि मेल चैक करूं. अपने बाऊजी ने जाने कहां कहां की मशक्कत के बाद यह ग़ज़ल बाकायदा एम पी ३ फ़ॉर्मेट में बना कर मुझे मेल कर दी थी.

इस प्रिय गुरुवत मित्र को धन्यवाद कहते हुए आपकी सेवा में पेश है इब्न-ए-इंशा साहब की ग़ज़ल. इब्ने-ए-इंशा जी की एक नज़्म ग़ुलाम अली की और एक ग़ज़ल उस्ताद अमानत अली ख़ान की आवाज़ में आप पहले सुन ही चुके हैं:




देख हमारे माथे पर ये दश्त-ए-तलब की धूल मियां
हम से है तेरा दर्द का नाता, देख हमें मत भूल मियां

अहल-ए-वफ़ा से बात न करना होगा तेरा उसूल मियां
हम क्यों छोड़ें इन गलियों के फेरों का मामूल मियां

ये तो कहो कभी इश्क़ किया है, जग में हुए हो रुसवा भी
इस के सिवा हम कुछ भी न पूछें, बाक़ी बात फ़िज़ूल मियां

अब तो हमें मंज़ूर है ये भी, शहर से निकलें रुसवा हों
तुझ को देखा, बातें कर लीं, मेहनत हुई वसूल मियां


(इस ग़ज़ल का मक़्ता बहुत सुन्दर है, जो यहां नहीं गाया गया:

इंशा जी क्या उज्र है तुमको, नक़्द-ए-दिल-ओ-जां नज़्र करो
रूपनगर के नाके पर ये लगता है महसूल मियां

दश्त-ए-तलब: इच्छा का जंगल, मामूल: दिनचर्या, नाका: चुंगी, महसूल: चुंगी पर वसूला जाने वाला टैक्स.

एक निवेदन: यदि आप में से किसी को मालूम हो कि मेराज-ए-ग़ज़ल में ग़ुलाम अली और आशा भोंसले की गाई 'फिर सावन रुत की पवन चली, तुम याद आए' किसने लिखी है, तो बताने का कष्ट ज़रूर करें. बन्दा अहसानमन्द रहेगा.)

Saturday, July 12, 2008

दिल दीवाना तेरा भी है मेरा भी

जगजीत सिंह और लता मंगेशकर ने सन १९९१ में 'सजदा' अलबम जारी किया था. संभवतः ग़ुलाम अली-आशा भोंसले के अलबम 'मेराज-ए-ग़ज़ल' और मेहदी हसन - शोभा गुर्टू के 'तर्ज़' जैसे संग्रहों के बाद आने वाला इस तरह की जुगलबन्दी वाला यह सबसे बेहतरीन कलेक्शन था.

आज प्रस्तुत की जा रही ग़ज़ल है १९३२ में नागपुर में जन्मे शायर शाहिद कबीर साहब की. 'चारों ओर' (१९६८), 'मिट्टी का मकान' (१९७९) और 'पहचान' (२०००) उनके प्रकाशित संग्रहों के नाम हैं.

बहुत सादा धुन में बहुत इत्मीनान से गाई गई है ये कम्पोज़ीशन. आनन्द उठाइये:




ग़म का ख़ज़ाना तेरा भी है, मेरा भी
ये नज़राना तेरा भी है, मेरा भी

अपने ग़म को गीत बना कर गा लेना
राग पुराना तेरा भी है मेरा भी

मैं तुझको और तू मुझको समझाएं क्या
दिल दीवाना तेरा भी है मेरा भी

शहर में गलियों गलियों जिसका चरचा है
वो अफ़साना तेरा भी है मेरा भी

मैख़ाने की बात न कर वाइज़ मुझ से
आना जाना तेरा भी है मेरा भी

Friday, July 11, 2008

फ़कीरानः आए सदा कर चले, मियां ख़ुश रहो हम दुआ कर चले

कई दिनों बाद आज इस ग़ज़ल को सुनते हुए मुझे बारहा ऐसा अहसास होता रहा कि यह किसी बीती सहस्त्राब्दी की फ़िल्म का हिस्सा है. मैं लगातार अपने आप से पूछता रहा कि क्या फ़क़त छब्बीस साल पहले इस दर्ज़े की कालजयी कृतियों को किसी फ़िल्म में बढ़िया पॉपुलर धुनों में बांधने वाले संगीतकार इसी धरती पर हुआ करते थे? उनमें से कोई बचे भी हैं या नहीं? या सब कुछ मार्केट के नाम पर औने-पौने बेच-लूट दिया गया?

१९८२ में सागर सरहदी की बहुचर्चित फ़िल्म 'बाज़ार' से पेश है बाबा मीर तक़ी मीर की विख्यात ग़ज़ल. इस फ़िल्म में नसीरुद्दीन शाह, स्मिता पाटिल, फ़ारुख़ शेख़ और सुप्रिया पाठक की मुख्य भूमिकाएं थीं. खैयाम साहब का संगीत है और लता मंगेशकर की आवाज़.




दिखाई दिये यूं कि बेख़ुद किया
हमें आप से भी जुदा कर चले

जबीं सजदा करते ही करते गई
हक़-ए-बन्दगी हम अदा कर चले

परस्तिश की यां तक कि अय बुत तुझे
नज़र में सभों की ख़ुदा कर चले

बहुत आरज़ू थी गली की तेरी
सो यां से लहू में नहा कर चले

Thursday, July 10, 2008

इस वक़्त कोई मेरी क़सम देखता मुझे

बहुत ही कम आयु में दिवंगत हो गए अद्वितीय गायक मास्टर मदन की एक ग़ज़ल आपने चन्द दिन पहले सुनी थी. जैसा मैंने वायदा किया था, सुनिये मास्टर मदन की आवाज़ में साग़र निज़ामी की एक और ग़ज़ल



हैरत से तक रहा है जहान-ए-वफ़ा मुझे
तुम ने बना दिया है मोहब्बत में क्या मुझे

हर मंज़िल-ए-हयात से गुम कर गया मुझे
मुड़ मुड़ के राह में वो तेरा देखना मुझे

कैसे ख़ुशी ने मौज को कश्ती बना दिया
होश-ए-ख़ुदा अब न ग़म-ए-नाख़ुदा मुझे

साक़ी बने हुए हैं वो साग़र शब-ए-विसाल
इस वक़्त कोई मेरी क़सम देखता मुझे

Tuesday, July 8, 2008

कभी तकदीर का मातम कभी दुनिया का गिला

बेग़म अख़्तर पर एक उम्दा पोस्ट भाई संजय पटेल लगा चुके हैं. आज उसी क्रम में सुनिये शकील बदायूंनी की एक बहुत मशहूर ग़ज़ल इसी अमर वाणी में:



ए मोहब्बत तेरे अंजाम पे रोना आया
जाने क्यूं आज तेरे नाम पे रोना आया

यूं तो हर शाम उम्मीदों में गुज़र जाती थी
आज कुछ बात है कि शाम पे रोना आया

कभी तकदीर का मातम कभी दुनिया का गिला
मंज़िल-ए-इश्क़ में हर गाम पे रोना आया

जब हुआ ज़िक्र ज़माने में मोहब्बत का 'शकील'
हमको अपने दिल-ए-नाकाम पे रोना आया

Monday, July 7, 2008

रुत आई पीले फूलों की, तुम याद आए

कोई बीसेक साल पहले ग़ुलाम अली और आशा भोंसले ने मिल जुल कर मेराज़-ए-ग़ज़ल नाम से एक बेहतरीन अल्बम जारी किया था. यह आज भी मेरे सर्वकालीन प्रियतम संग्रहों में है. उसी से सुनिए यह कम्पोज़ीशन:


फिर सावन रुत की पवन चली, तुम याद आए
फिर पत्तों की पाज़ेब बजी, तुम याद आए

फ़िर कंजें बोलीं घास के हर समुन्दर में
रुत आई पीले फूलों की, तुम याद आए

फिर कागा बोला घर के सूने आंगन में
फिर अमृत रस की बूंद पड़ी, तुम याद आए



(आभार: विनय)

Sunday, July 6, 2008

मैं इन्तेहा-ए-शौक़ में घबरा के पी गया

'जिगर' मुरादाबादी की ग़ज़ल मुहम्मद रफ़ी साहब की आवाज़:



साकी की हर निगाह पे बल खा के पी गया
लहरों से खेलता हुआ लहरा के पी गया

ज़ाहिद, ये मेरी शोखी-ए-रिन्दाना देखना
रहमत को बातों बातों में बहला के पी गया

ए रहमत-ए-तमाम, मेरी हर ख़ता मुआफ़
मैं इन्तेहा-ए-शौक़ में घबरा के पी गया

सरमस्ति-ए-अज़ल मुझे जब याद आ गई
दुनिया-ए-ऐतबार को ठुकरा के पी गया

Saturday, July 5, 2008

जिस झोली में सौ छेद हुए, उस झोली को फैलाना क्या

पसन्दीदा शायर हैं जनाब इब्न-ए-इंशा साहब. उस्ताद अमानत अली ख़ान सुना रहे हैं अपने अलग क़िस्म के अन्दाज़ में इंशा साहब की एक नज़्म.



इंशाजी उठो अब कूच करो,
इस शहर में जी का लगाना क्या
वहशी को सुकूं से क्या मतलब,
जोगी का नगर में ठिकाना क्या

इस दिल के दरीदा दामन में
देखो तो सही, सोचो तो सही
जिस झोली में सौ छेद हुए
उस झोली को फैलाना क्या

शब बीती चाँद भी डूब चला
ज़ंजीर पड़ी दरवाज़े पे
क्यों देर गये घर आये हो
सजनी से करोगे बहाना क्या

जब शहर के लोग न रस्ता दें
क्यों बन में न जा बिसराम करें
दीवानों की सी न बात करे
तो और करे दीवाना क्या

इंशा साहब की एक और मशहूर नज़्म आप ग़ुलाम अली की आवाज़ में सुख्ननसाज़ पर यहां सुन सकते हैं:

ये बातें झूठी बातें हैं

Friday, July 4, 2008

मेरी दुनिया मुन्तज़िर है आपकी, अपनी दुनिया छोड़ कर आ जाइये

दो ढाई साल की उम्र से गाना शुरू कर देने वाले और मात्र चौदह साल की नन्ही आयु में स्वर्गवासी हो गए मास्टर मदन की प्रतिभा का लोहा स्वयं कुन्दन लाल सह्गल ने भी माना था. उनका जन्म २८ दिसम्बर १९२७ को जलन्धर के एक गांव खा़नखा़ना में हुआ था, जो प्रसंगवश अकबर के दरबार की शान अब्दुर्ररहीम खा़नखा़ना की भी जन्मस्थली था. ५ जून १९४२ को हुई असमय मौत से पहले उनकी आवाज़ में आठ रिकार्डिंग्स हो चुकी थीं. 


ये ग़ज़ल गुलज़ार और जगजीत सिंह की कमेन्ट्री के साथ कुछ साल पहले एच एम वी द्वारा 'फ़िफ़्टी ईयर्स आफ़ पापुलर गज़ल' के अन्तर्गत जारी हुई थी. जगजीत सिंह के मुताबिक मास्टर मदन सिर्फ़ तेरह साल जिए लेकिन यह सत्य नहीं है. इस के अलावा इस अल्बम में बताया गया है कि इन गज़लों का संगीत मास्टर मदन का है. यह भी सत्य नहीं है. ये गज़लें १९३४ में रिकार्ड की गई थीं यानी तब उनकी उम्र ७ साल थी. असल में इन गज़लों को १९४७ में 'मिर्ज़ा साहेबां' फ़िल्म का संगीत देने वाले पं अमरनाथ ने स्वरबद्ध किया था. सागर निज़ामी की इन गज़लों में मास्टर मदन की आवाज़ का साथ स्वयं पं अमरनाथ हार्मोनियम पर दे रहे हैं. तबले पर हीरालाल हैं और वायलिन पर मास्टर मदन के अग्रज मास्टर मोहन:



यूं न रह रह के हमें तरसाइए
आइये, आ  जाइये, आ जाइये
 
फिर वही दानिश्ता ठोकर खाइये
फिर मेरे आग़ोश में गिर जाइये
 
मेरी दुनिया मुन्तज़िर है आपकी
अपनी दुनिया छोड़ कर आ जाइये
 
ये हवा 'साग़र' ये हल्की चांदनी
जी में आता है यहीं मर जाइये
 
(मास्टर मदन की एक और ग़ज़ल आप को जल्दी सुनने को मिलेगी यहीं)

Thursday, July 3, 2008

गै़र के सामने यूं होते हैं शिकवे मुझसे


डॉक्टर रोशन भारती साहब की एक ग़ज़ल आप सुख़नसाज़ में सुन चुके हैं. टाइम्स म्यूज़िक द्वारा जारी उनके अल्बम 'दाग़' से प्रस्तुत कर रहा हूं एक और ग़ज़ल



आप जिन जिन को हदफ़ तीर-ए-नज़र करते हैं
रात दिन हाय जिगर हाय जिगर करते हैं

गै़र के सामने यूं होते हैं शिकवे मुझसे
देखते हैं वो उधर बात इधर करते हैं

दर-ओ-दीवार से भी रश्क मुझे आता है
गौर से जब किसी जानिब वो नज़र करते हैं

एक तो नश्शा-ए-मय उस पे नशीली आंखें
होश उड़ते हैं जिधर को वो नज़र करते हैं


रोशन जी के बारे में जानने हेतु उनकी वैबसाइट पर जाया जा सकता है. आज बड़ौदा में उनकी एक कन्सर्ट भी है. उनकी पिछली ग़ज़ल का लिंक ये रहा:

दिल गया, तुमने लिया हम क्या करें

Tuesday, July 1, 2008

इक ज़रा दिल के क़रीब आओ तो कुछ चैन पड़े

कुछ दिन पहले यहां आपने मेहदी हसन साहब की आवाज़ में एक अल्बम 'तर्ज़' से एक ग़ज़ल सुनी थी. गणेश बिहारी 'तर्ज़' की ग़ज़लों को ललित सेन ने संगीतबद्ध किया था. उसी से सुनिये इस दफ़ा शोभा गुर्टू को. कमेन्ट्री है नौशाद साहब की:



इक ज़रा दिल के क़रीब आओ तो कुछ चैन पड़े
जाम को जाम से टकराओ तो कुछ चैन पड़े

जी उलझता है बहुत नग़्म-ए-रंगीं सुनकर
गीत एक दर्द भरा गाओ तो कुछ चैन पड़े

बैठे-बैठे तो हर इक मौज से दिल दहलेगा
बढ़ के तूफ़ानों से टकराओ तो कुछ चैन पड़े

दाग़ के शेर जवानी में भले लगते हैं
मीर की कोई ग़ज़ल गाओ तो कुछ चैन पड़े

याद-ए-अय्याम-ए-गुज़िस्ता से इजाज़त लेकर
'तर्ज़' कुछ देर को सो जाओ तो कुछ चैन पड़े