Monday, June 30, 2008

बेगम अख़्तर : तबीयत इन दिनों बेगा़ना-ए-ग़म होती जाती है

मलिका–ए–ग़ज़ल बेगम अख़्तर ने ग़ज़ल को ज़िस तरह से अपनी आवाज़ से सँवारा है उससे बेशुमार दर्दी मुतमईन हैं.अब इस वीडियो को ही देखिये जो सुख़नसाज़ की बारादरी में आ पसरा है.किस बेसाख़्ता सादगी से बेगम अख़्तर इस कलाम को गा रहीं हैं.उनकी नाक का बेशक़ीमती हीरा उनकी गायकी के सामने कुछ कम ही दमकता नज़र आ रहा है. हाथ में बाजा लिये निर्विघ्न श्रवणा बेगम अख़्तर से रू-ब-रू होना किसी पावन तीर्थ का दर्शन करने जैसा है. लोग कहते हैं बेगम अख़्तर ग़ज़ल गातीं हैं ... ग़लत कहते हैं ... ग़ज़ल बेगम अख़्तर के गले में आन समाती है और आकर एक ख़ुशबू की मानिंद हमारे दिलो-दिमाग़ पर छा जाती है.

जब वे गा रही होती हैं तो ग़ज़ल उनकी होती है,शायर की नहीं. ये करामात सिर्फ़ उन्हीं के बूते का है. गाते वक़्त उनकी देहभाषा तो देखिये...जैसे ग़ज़ल को अपनी प्यारी सी बच्ची की तरह वे दुलार रहीं हों. बीच में सामईन की तरफ़ देख कर जिस तरह वे मुस्कुराती हैं लगता है पूछ रहीं हों अच्छी लगी न ये बात ...शुक्रिया. जहाँ जहाँ उनकी आवाज़ में पत्ती लगती है (जिसे कुछ दुष्ट लोग आवाज़ का फ़टना भी कहते हैं) समझिये बंदिश का स्वराभिषेक कर दिया बेगम अख़्तर ने.

बस अब अपनी वाचालता को विराम देते हुए एक ख़ास वक्तव्य:

महाराष्ट्र के जाने माने साहित्यकार पु. ल. देशपांडे बेगम अख़्तर के अनन्य मुरीद थे. अपने मित्रों वसंतराव देशपांडे, कुमार गंधर्व और रसिसराज रामू भैया दाते के साथ मिल अक्सर बेगम अख़्तर के रेकॉर्ड चूड़ी वाले बाजे पर सुनते. संघर्ष के दिन थे वे इन सभी के लिये. पु.ल. कहते: "बेगम अख़्तर के रेकॉर्ड्स सुनते वक़्त हमारी तार-तार दरी शहाना कालीन हो जाती और छत पर टंगा कंदील आलीशान झाड़फ़ानूस हो जाता."




तबीयत इन दिनों बेगा़ना-ए-ग़म होती जाती है
मेरे हिस्से की गोया हर ख़ुशी कम होती जाती है

क़यामत क्या ये अय हुस्न-ए-दो आलम होती जाती है
कि महफ़िल तो वही है, दिलकशी कम होती जाती है

वही मैख़ाना-ओ-सहबा वही साग़र वही शीशा
मगर आवाज़-ए-नौशानोश मद्धम होती जाती है

वही है शाहिद-ओ-साक़ी मगर दिल बुझता जाता है
वही है शमः लेकिन रोशनी कम होती जाती है

वही है ज़िन्दगी अपनी 'जिगर' ये हाल है अपना
कि जैसे ज़िन्दगी से ज़िन्दगी कम होती जाती है

दिल लगा कर तुम ज़माने भर के धोख़े खाओगे

अहमद हुसैन-मोहम्मद हुसैन से आप पहले भी यहां सुख़नसाज़ पर रू-ब-रू हो चुके हैं. आज पेश है उनकी एक और नायाब ग़ज़ल 'आईने से कब तलक तुम अपना दिल बहलाओगे'



आईने से कब तलक तुम अपना दिल बहलाओगे
छाएंगे जब-जब अंधेरे, ख़ुद को तनहा पाओगे

हर हसीं मंज़र से यारो फ़ासले क़ायम रखो
चांद गर धरती पे उतरा, देख कर डर जाओगे

आरज़ू, अरमान, ख़्वाहिश, जुस्तजू, वादे, वफ़ा
दिल लगा कर तुम ज़माने भर के धोख़े खाओगे

ज़िन्दगी के चन्द लमहे ख़ुद की ख़ातिर भी रखो
भीड़ में ज़्यादा रहे तो खु़द भी गुम हो जाओगे

अहमद हुसैन-मोहम्मद हुसैन को यहां भी सुनें:

तुझे भूलने की दुआ करूं तो मेरी दुआ में असर न हो
ज़ुल्फ़ बिखरा के निकले वो घर से

Friday, June 27, 2008

नगरी नगरी फिरा मुसाफ़िर

एक शायर थे मीराजी। मशहूर अफसानानिगार सादत हसन मंटो साहब की एक किताब है 'मीनाबाज़ार'। इस किताब में उन्होने बड़े अपनेपन के साथ मीराजी को याद किया है। मीराजी (२५ मई १९१२-४ नवम्बर १९४९ ) का असली नाम मोहम्मद सनाउल्लाह सानी था। फितरत से आवारा और हद दर्जे के बोहेमियन मीराजी ने यह उपनाम अपने एक असफल प्रेम की नायिका मीरा सेन के गम से प्रेरित हो कर धरा था। सन १९१२ में पैदा हुए मीराजी ने कुछ समय तक 'साकी' और 'ख़याल' जैसी लघु पत्रिकाओं के लिए लेख वगैरह लिखे। 'हल्क़ा' नाम की साहित्यिक संस्था से जुडे इस शायर को कई आलोचक उर्दू भाषा में प्रतीकवाद का प्रवर्तक मानते हैं।

उन के पिता भारतीय रेलवे में बड़े अधिकारी थे लेकिन घर से मीराजी की कभी नहीं बनी और कुल जमा ३७ साल की उम्र का बड़ा हिस्सा उन्होने एक बेघर शराबी के तौर पर बिताया। छोटी-बड़ी पत्रिकाओं के लिए गीत और लेख लिख कर उनका गुज़ारा होता था। मीराजी के दोस्तों ने उन्हें बहुत मोहब्बत दी और अंत तक उनका ख़याल रखा। कहा जाता है की बाद बाद के सालों में वे मानसिक संतुलन खो चुके थे।

फ्रांसीसी कवि चार्ल्स बौद्लेयर को अपना उस्ताद मानने वाले मीराजी संस्कृत, अंग्रेजी और फारसी (संभवतः फ्रेंच भी) जानते थे। उनकी सारी रचनाएं १९८८ में जाकर 'कुल्लियात-ए-मीराजी' शीर्षक से छप सकीं। उन्होने संस्कृत से दामोदर गुप्त और फारसी से उमर खैय्याम की रचनाओं का उर्दू तर्जुमा किया। मीराजी की यह ग़ज़ल (जिसका ज़िक्र मंटो की 'मीनाबाज़ार' में भी आता है) कुछ साल पहले गुलाम अली ने 'हसीन लम्हे' नाम के अल्बम में गाई थी।

सुनिए।


यूं उठे आह उस गली से हम जैसे कोई जहां से उठता है

दो उस्तादों की एक साथ संगत होती है तो देखिये क्या होता है. शहंशाह-ए-ग़ज़ल मेहदी हसन साहब गा रहे हैं शायरी के ख़ुदा बाबा मीर तक़ी मीर की एक अतिविख्यात रचना.



देख तो दिल के जां से उठता है,
ये धुंआं सा कहां से उठता है

गोर किस दिलजले की है ये फ़लक,
शोला इक सुब्ह यां से उठता है

बैठने कौन दे है फिर उसको
जो तेरे आस्तां से उठता है

यूं उठे आह उस गली से हम,
जैसे कोई जहां से उठता है

(गोर: कब्र, फ़लक: आसमान)

*आज से श्री संजय पटेल भी सुख़नसाज़ से जुड़ गए हैं. संगीत का उनका ज्ञान बड़े-बड़े ग्रंथों और कोशों से अधिक विशद है. अब देखिए आगे आगे क्या-क्या और सुनने को मिलता है आपको यहां.

Thursday, June 26, 2008

दिल गया, तुमने लिया हम क्या करें

डॉक्टर रोशन भारती से सुनिये दाग़ देहलवी का क़लाम:



दिल गया, तुमने लिया हम क्या करें
जाने वाली चीज़ का ग़म क्या करें

एक साग़र पर है अपनी ज़िन्दगी
रफ़्ता-रफ़्ता इसे भी कम क्या करें

मामला है आज हुस्न-ओ-इश्क़ में
देखिये वो क्या करें, हम क्या करें

(एक निवेदन: आख़िरी शेर की दूसरी पंक्ति में एकाध अल्फ़ाज़ समझ में नहीं आ रहे हैं:

आईना है और वो हैं देखिये
फ़ैसला दोनों ... हम क्या करें

यदि आप में से किसी को इस की जानकारी हो तो अवश्य दें. धन्यवाद.)

रग-ओ-पै में जब उतरे ज़हर-ए-ग़म तब देखिये क्या हो


मोहम्मद रफ़ी साहब गा रहे हैं मिर्ज़ा असदुल्ला ख़ां 'ग़ालिब' की महानतम ग़ज़लों में शुमार की जाने वाली एक रचना. उर्दू के काफ़ी सारे मुश्किल शब्द हैं इन तीन अशआर में. आपकी सुविधा के लिये इन सब का अर्थ भी दे रहा हूं.



क़द-ओ-गेसू में क़ैस-ओ-कोहकन की आज़माइश है
जहां हम हैं वहां दार-ओ-रसन की आज़माइश है

नहीं कुछ सुब्ह-ओ-ज़ुन्नार के फ़न्दे में गीराई
वफ़ादारी में शैख़-ओ-बरहमन की आज़माइश है

रग-ओ-पै में जब उतरे ज़हर-ए-ग़म तब देखिये क्या हो
अभी तो तल्ख़ि-ए-काम-ओ-दहन की की आज़माइश है

(क़द-ओ-गेसू: प्रेमिका के सन्दर्य के दो पारम्परिक प्रतिमान यानी लम्बाई और केश, क़ैस-ओ-कोहकन: मजनूं और फ़रहाद, दार-ओ-रसन: सूली और फांसी का फ़न्दा, यहां सूली से माशूक के क़द और फांसी के फ़न्दे से माशूक की केशराशि की तरफ़ इशारा करते हैं मिर्ज़ा साहब, सुब्ह-ओ-ज़ुन्नार: तसबीह यानी फेरी जाने वाली माला और यज्ञोपवीत, गीराई: पकड़ या गिरफ़्त, शैख़-ओ-बरहमन: मौलवी और पंडा, रग-ओ-पै: नसें और मांसपेशियां यानी पूरी देह, तल्ख़ि-ए-काम-ओ-दहन: होंठ और तालु पर महसूस होने वाला कसैलापन)

रफ़ी साहब की गाई मिर्ज़ा ग़ालिब की एक और ग़ज़ल कल ही मीत ने भी लगाई है. ज़रूर सुनें:

ये न थी हमारी क़िस्मत, कि विसाल-ए-यार होता

Wednesday, June 25, 2008

चले भी आओ कि गुलशन का करोबार चले


फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ साहब की इस कालजयी ग़ज़ल को स्वर दे रहे हैं उस्ताद मेहदी हसन


गुलों में रंग भरे, बाद-ए-नौबहार चले
चले भी आओ कि गुलशन का करोबार चले

क़फ़स उदास है यारो, सबा से कुछ तो कहो
कहीं तो बहर-ए-ख़ुदा आज ज़िक्र-ए-यार चले

जो हम पे गुज़री सो गुज़री मगर शब-ए-हिज्राँ
हमारे अश्क़ तेरी आक़बत सँवार चले

कभी तो सुब्ह तेरे कुंज-ए-लब से हो आग़ाज़
कभी तो शब सर-ए-काकुल से मुश्कबार चले

मक़ाम 'फै़ज़' कोई राह में जंचा ही नहीं
जो कू-ए-यार से निकले तो सू-ए-दार चले

(गुल: फूल, बाद-ए-नौबहार: नये वसन्त की हवा, कफ़स: पिंजरा, सबा: सुबह की समीर, बहर-ए ख़ुदा: भगवान के वास्ते, शब-ए-हिज्रां: विरह की रात, अश्क: आंसू, आक़बत: परलोक, कू-ए-यार: प्रेमिका की गली, सू-ए-दार: फांसी का फ़न्दा)

फ़ैज़ साहब की कुछ अन्य रचनाएं दिलचस्प आवाज़ों में इन्हीं दिनों एकाधिक ब्लॉग्स पर आई हैं. फ़िलहाल ये लिंक ज़रूर देखिये:

ये कौन सख़ी हैं जिनके लुहू की अशरफ़ियाँ छन-छन-छन-छन
और भी ग़म हैं ज़माने में मुहब्बत के सिवा

Tuesday, June 24, 2008

तुझे भूलने की दुआ करूं तो मेरी दुआ में असर न हो

संभवतः कल आपने कबाड़ख़ाने में अहमद हुसैन - मोहम्मद हुसैन की ग़ज़ल सुनी होगी. आज उन्हीं के अल्बम 'रिफ़ाक़त' से सुनते हैं जनाब बशीर बद्र की एक ग़ज़ल



कभी यूं भी आ मेरी आंख में, कि मेरी नज़र को ख़बर न हो
मुझे एक रात नवाज दे, मगर उसके बाद सहर न हो

वो बड़ा रहीमो करीम है, मुझे ये सिफ़त भी अता करे
तुझे भूलने की दुआ करूं तो मेरी दुआ में असर न हो

मेरे बाज़ुओं में थकी थकी, अभी महवे ख़्वाब है चांदनी
ना उठे सितारों की पालकी, अभी आहटों का गुज़र न हो

कभी दिन की धूप में घूम कर, कभी शब के फ़ूल को चूम कर
यूं ही साथ साथ चलें सदा, कभी ख़त्म अपना सफ़र न हो



(शायरी के शौकीनों के लिए पेश है यह पूरी की पूरी ग़ज़ल:

कभी यूं भी आ मेरी आंख में, कि मेरी नजर को खबर न हो
मुझे एक रात नवाज दे, मगर उसके बाद सहर न हो

वो बड़ा रहीमो करीम है, मुझे ये सिफ़त भी अता करे
तुझे भूलने की दुआ करूं तो मेरी दुआ में असर न हो

मेरे बाज़ुऔं में थकी थकी, अभी महवे ख्वाब है चांदनी
ना उठे सितारों की पालकी, अभी आहटों का गुजर न हो

ये ग़ज़ल है जैसे हिरन की आंखों में पिछली रात की चांदनी
ना बुझे ख़राबे की रौशनी, कभी बेचिराग़ ये घर न हो

वो फ़िराक़ हो या विसाल हो, तेरी याद महकेगी एक दिन
वो गु़लाब बन के खिलेगा क्या, जो चिराग़ बन के जला न हो

कभी धूप दे, कभी बदलियां, दिलोजान से दोनो क़ुबूल हैं
मगर उस नगर में ना कैद कर, जहां ज़िन्दगी का हवा न हो

कभी यूं मिलें कोई मसलेहत, कोई खौ़फ़ दिल में ज़रा न हो
मुझे अपनी कोई ख़बर ना हो, तुझे अपना कोई पता न हो

वो हजार बागों का बाग हो, तेरी बरकतो की बहार से
जहां कोई शाख़ हरी ना हो, जहां कोई फूल खिला न हो

तेरे इख़्तियार में क्या नहीं, मुझे इस तरह से नवाज़ दे
यूं दुआयें मेरी क़ुबूल हों, मेरे दिल में कोई दुआ न हो

कभी हम भी इस के क़रीब थे, दिलो जान से बढ कर अज़ीज़ थे
मगर आज ऐसे मिला है वो, कभी पहले जैसे मिला न हो

कभी दिन की धूप में झूम कर, कभी शब के फ़ूल को चूम कर
यूं ही साथ साथ चले सदा, कभी खत्म अपना सफ़र न हो

मेरे पास मेरे हबीब आ, जरा और दिल के क़रीब आ
तुझे धडकनों में बसा लूं मैं, कि बिछड़ने का कभी डर न हो.)

* फ़ोटो रविवार से साभार

या छोड़ें या तकमील करें, ये इश्क़ है या अफ़साना है

पाकिस्तानी शायर इब्ने इंशा (१९२७-१९७८) मेरे सबसे पसन्दीदा कवि-लेखकों में हैं. इंशा साहब का असली नाम शेर मोहम्मद ख़ां था. उनकी ज़्यादातर पद्य रचनाओं से एक फक्कड़मिजाज़ मस्तमौला और अनौपचारिक इन्सान की तस्वीर उभरती है जो मीर तक़ी मीर और नज़ीर अकबराबादी की रिवायत को आगे ले जाने का हौसला और माद्दा रखता है. जैसे उनका एक शेर देखिये:

इंशा ने फिर इश्क़ किया, इंशा साहब दीवाने
अपने भी वो दोस्त हुए, हम भी चलेंगे समझाने

उनका बेहतरीन व्यंग्यात्मक गद्य उनके व्यक्तित्व के एक बेहद सचेत आयाम से हमें रू-ब-रू कराता है. इरफ़ान के ब्लॉग 'टूटी हुई बिखरी हुई' पर आप उनकी चन्द ऐसी ही रचनाओं का पाठ सुन सकते हैं. फ़िलहाल आज सुनिये उनकी एक नज़्म ग़ुलाम अली की आवाज़ में. उनकी एक और ग़ज़ल 'कल चौदहवीं की रात थी' को ख़ुद ग़ुलाम अली और जगजीत सिंह काफ़ी पॉपुलर बना चुके हैं.



ये बातें झूठी बातें हैं, ये लोगों ने फैलाई हैं
तुम इंशा जी का नाम न लो, क्या इंशा जी सौदाई हैं?

हैं लाखों रोग ज़माने में, क्यों इश्क़ है रुसवा बेचारा
हैं और भी वजहें वहशत की, इन्सान को रखतीं दुखियारा
हाँ बेकल बेकल रहत है, हो प्रीत में जिसने दिल हारा
पर शाम से लेके सुबहो तलक, यूँ कौन फिरे है आवारा
ये बातें झूठी बातें हैं, ये लोगों ने फैलाई हैं
तुम इंशा जी का नाम न लो, क्या इंशा जी सौदाई हैं?

गर इश्क़ किया है तब क्या है, क्यूँ शाद नहीं आबाद नहीं
जो जान लिये बिन टल ना सके, ये ऐसी भी उफ़ताद नहीं
ये बात तो तुम भी मानोगे, वो क़ैस नहीं फ़रहाद नहीं
क्या हिज्र का दारू मुश्किल है, क्या वस्ल के नुस्ख़े याद नहीं
ये बातें झूठी बातें हैं, ये लोगों ने फैलाई हैं
तुम इंशा जी का नाम न लो, क्या इंशा जी सौदाई हैं

जो हमसे कहो हम करते हैं, क्या इन्शा को समझना है
उस लड़की से भी कह लेंगे, गो अब कुछ और ज़मना है
या छोड़ें या तकमील करें, ये इश्क़ है या अफ़साना है
ये कैसा गोरख धंधा है, ये कैसा ताना बाना है
ये बातें झूठी बातें हैं, ये लोगों ने फैलाई हैं
तुम इंशा जी का नाम न लो, क्या इंशा जी सौदाई हैं

(सौदाई: पागल, वहशत: घबराहट, शाद: खु़श, उफ़ताद: अचानक आई हुई कोई विपत्ति, दारू: दवा, तकमील करना: अंजाम तक पहुंचाना )

नोट: इस रचना में एक और शानदार स्टैंज़ा है जो पता नहीं क्यों ग़ुलाम अली ने छोड़ दिया. मुझे तो वह कुछ ज़्यादा ही अच्छा लगता है. दुर्भाग्यवश इस स्टैंज़ा का बहुत सारे लोगों को पता ही नहीं. लीजिये प्रस्तुत है:

ये बात अजीब सुनाते हो, वो दुनिया से बेआस हुए
इक नाम सुना और ग़श खाया, इक ज़िक्र पे आप उदास हुए
वो इल्म में अफ़लातून बने, वो शेर में तुलसीदास हुए
वो तीस बरस के होते हैं, वो बी.ए. एम.ए. पास हुए

और ये रहा एक और बेहद ज़रूरी स्टैंज़ा जो बजरिये मीत (उर्फ़ अमिताभ भाई) यहां पहुंचाया जा रहा है:

वो लड़की अच्छी लड़की है, तुम नाम न लो हम जान गए
वो जिस के लंबे गेसू हैं, पहचान गए पहचान गए
हाँ साथ हमारे इंशा भी उस घर में थे मेहमान गए
पर उस से तो कुछ बात न की, अनजान रहे अनजान गए

Monday, June 23, 2008

तन्हा तन्हा मत सोचा कर, मर जाएगा मत सोचा कर


मेहदी हसन साब का अपेक्षाकृत बाद का अलबम है 'कहना उसे'. इसमें उन्होंने मशहूर पाकिस्तानी शायर फ़रहत शहज़ाद की चुनिन्दा ग़ज़लें गाई हैं. ये ग़ज़लें सतह पर मोहब्बत-ओ-आशिक़ी की रचनाएं लगती हैं पर सच्चाई यह है कि ये सारी की सारी बेहद सजग राजनैतिक ग़ज़लें हैं. तत्कालीन फ़ौजी शासक ज़िया-उल-हक़ की ख़िलाफ़त में लिखी गईं ये रचनाएं आज एक तारीख़ी अहमियत रखती हैं. बादशाह-ए-ग़ज़ल मेहदी हसन ने इन्हें उस वक़्त गाते वक़्त बहुत बड़ा जोख़िम भी लिया था. आप ही सुनिये कैसे अपनी बात को बयान करने को शायरी क्या-क्या, कैसे-कैसे रंग ले सकती है:



तन्हा तन्हा मत सोचा कर
मर जाएगा मत सोचा कर

प्यार घड़ी भर का ही बहुत है
झूठा सच्चा मत सोचा कर

जिसकी फ़ितरत ही डसना हो
वो तो डसेगा मत सोचा कर

धूप में तन्हा कर जाता है
क्यों ये साया मत सोचा कर

अपना आप गंवा कर तू ने
पाया है क्या मत सोचा कर

मान मेरे शहज़ाद वगरना
पछताएगा मत सोचा कर

मुद्दत हुई है यार को मेहमां किये हुए

मोहम्मद रफ़ी साहब की आवाज़ में सुनिये मिर्ज़ा ग़ालिब की विख्यात ग़ज़ल:

मुद्दत हुई है यार को मेहमां किये हुए
जोश-ए-कदः से बज़्म चराग़ां किये हुए

मांगे है फिर किसी को लब-ए-बाम पर हवस
ज़ुल्फ़-ए-सियह रुख़ पे परीशां किये हुए

इक नौबहार-ए-नाज़ को ताके है फिर निगाह
चेहरा फ़रोग़-ए-मै से गुलिस्तां किये हुए

जी ढूंढता है फिर वही फ़ुरसत के रात दिन
बैठे रहें तसव्वुर-ए-जानां किये हुए

ग़ालिब हमें न छेड़ कि फिर जोश-ए-अश्क से
बैठे हैं हम तहया-ए-तूफ़ां किये हुए



इसी ग़ज़ल को इक़बाल बानो से सुनिये 'कबाड़ख़ाने' पर

इश्क की मार बड़ी दर्दीली, इश्क में जी न फंसाना जी

कुछ साल पहले मेहदी हसन साहब ने ललित सेन के संगीत निर्देशन में 'तर्ज़' नाम से एक अल्बम जारी किया था। इस अल्बम में शायर गणेश बिहारी 'तर्ज़' की ग़ज़लों को हसन साब के अलावा शोभा गुर्टू जी ने भी आवाज़ दी थी।

नौशाद साहब की कमेंट्री से सजी इस अल्बम को बहुत ज्यादा लोकप्रियता हासिल नहीं हुई लेकिन वैराग्य और मिठास में पगी मेहदी हसन साब की आवाज़ इस सीधी सादी कम्पोजीशन को अविस्मरणीय बना देती है।


इश्क की मार बड़ी दर्दीली, इश्क में जी न फंसाना जी
सब कुछ करना इश्क न करना, इश्क से जान बचाना जी

वक़्त न देखे, उम्र न देखे, जब चाहे मजबूर करे
मौत और इश्क के आगे लोगो, कोई चले न बहाना जी

इश्क की ठोकर, मौत की हिचकी, दोनों का है एक असर
एक करे घर घर रुसवाई, एक करे अफसाना जी

इश्क की नेमत फिर भी यारो, हर नेमत पर भारी है
इश्क की टीसें देन खुदा की, इश्क से क्या घबराना जी

इश्क की नज़रों में सब यकसां, काबा क्या बुतखाना क्या
इश्क में दुनिया उक्बां क्या है, क्या अपना बेगाना जी

राह कठिन है पी के नगर की, आग पे चल कर जाना है
इश्क है सीढ़ी पी के मिलन की, जो चाहे तो निभाना जी

'तर्ज़' बहुत दिन झेल चुके तुम, दुनिया की जंजीरों को
तोड़ के पिंजरा अब तो तुम्हें है देस पिया के जाना जी




(अवधि: ८ मिनट ३४ सेकेंड)